+ नाटक समयसारकी महिमा वर्णन -
(सवैया एकत्रीसा)
मोख चलिवेकौ सौन करमकौ करै बौन,
जाके रस-भौन बुध लौन ज्यौं घुलत है ।
गुनको गरन्थ निरगुनकौ सुगम पंथ,
जाकौजसु कहत सुरेश अकुलत है ॥
याहीकै जु पच्छी ते उड़त ज्ञानगगनमैं,
याहीके विपच्छी जगजालमैं रुलत है ।
हाटकसौ विमल विराटकसौ विसतार,
नाटक सुनत हिये फाटक खुलतहै ॥१५॥
अन्वयार्थ : यह नाटक मोक्ष को चलने के लिये सीढ़ी-स्वरूप है, कर्मरूपी विकार का वमन करता है, इसके रसरूप जल में विद्वान लोग नमक के समान लीन हो जाते हैं, यह सम्यग्दर्शनादि गुणों का पिण्ड है, मुक्ति का सरल रास्ता है, इसकी महिमा वर्णन करते हुए इन्द्र भी लज्जित होते हैं, जिन्हें इस ग्रन्थ की पक्षरूप पंख प्राप्त हैं वे ज्ञानरूपी आकाश में विहार करते हैं और जिसको इस ग्रन्थ की पक्षरूप पंख प्राप्त नहीं हैं वह जगत के जंजाल में फँसता है, यह ग्रन्थ शुद्ध सुवर्ण के समान निर्मल है, विष्णु के विराटरूप के सहश विस्तृत है, इस ग्रन्थ के सुनने से हृदय के कपाट खुल जाते हैं ॥१५॥
सौन=सीढ़ी; बौन=वमन; हाटक=सुवर्ण; भौन (भवन)=जल