ॐ नमोऽर्हते स्वाहा (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा
ध्यायेत्पंच-नमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥
अपवित्र हो या पवित्र, जो णमोकार को ध्याता है ।
चाहे सुस्थित हो या दुस्थित, पाप-मुक्त हो जाता है ॥१॥
अन्वयार्थ : पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करने से पुरुष सब पापों से छूट जाता है चाहे ध्यान करते समय वह पवित्र हो अपवित्र हो या अच्छी जगह हो या बुरी जगह हो ।
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा
यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥२॥
हो पवित्र-अपवित्र दशा, कैसी भी क्यों नहिं हो जन की ।
परमातम का ध्यान किये, हो अन्तर-बाहर शुचि उनकी ॥२॥
अन्वयार्थ : शरीर चाहे स्नानादिक से पवित्र हो अथवा किसी अशुचिपदार्थ के स्पर्श से अपवित्र हो तथा सोती जागती उठती बैठती चलती आदि कोई भी दशा हो इन सभी दशाओं में जो पुरुष परमात्मा की स्मरण करता है वह उस समय बाह्य और अभ्यतन्तर से पवित्र है ।
अपराजित-मंत्रोऽयं, सर्व-विघ्न-विनाशनः
मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मतः ॥३॥
है अजेय विघ्नों का हर्ता, णमोकार यह मंत्र महा ।
सब मंगल में प्रथम सुमंगल, श्री जिनवर ने एम कहा ॥३॥
अन्वयार्थ : यह नमस्कार मंत्र किसी मंत्र से पराजित नही हो सकता इसलिए यह मंत्र अपराजित मंत्र है यह मंत्र सभी विघ्नों को नष्ट करने वाला है एवं सर्व मंगलों में यह प्रधान मंगल है ।
एसो पंच-णमोयारो, सव्व-पावप्पणासणो
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलम् ॥४॥
सब पापों का है क्षयकारक, मंगल में सबसे पहला ।
नमस्कार या णमोकार यह, मन्त्र जिनागम में पहला ॥४॥
अन्वयार्थ : यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है यह सब कार्यों के लिए मंगल रूप है और सब मगलों में पहला मगल है ।
अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः
सिद्धचक्रस्य सद् बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥५॥
अर्हं ऐसे परं ब्रह्म-वाचक, अक्षर का ध्यान करूँ ।
सिद्धचक्र का सद्बीजाक्षर, मन-वच-काय प्रणाम करूँ ॥५॥
अन्वयार्थ : अर्हं ये अक्षर परबह्म परमेष्ठी के वाचक हैं और सिद्ध समूह के सुन्दर बीजाक्षर है । मैं इनको मन वचन काय से नमस्कार करता हूं ।
कर्माष्टक-विनिर्मुक्तं मोक्ष-लक्ष्मी-निकेतनम्
सम्यक्त्वादि-गुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ॥६॥
अष्टकर्म से रहित मुक्ति-लक्ष्मी के घर श्री सिद्ध नमूँ ।
सम्यक्त्वादि गुणों से संयुत, तिन्हें ध्यान धर कर्म वमूँ ॥६॥
अन्वयार्थ : आठ कर्मों से रहित तथा मोक्ष रूपी लक्ष्मी के मंदिर और सम्यक्, दर्शन, ज्ञान, अगु रुलघु, अवगाहना, सूक्ष्मत्व अव्याबाध, वीर्यत्व इन आठ गुणों से सहित सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।
विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, शाकिनी भूत पन्नगाः
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥७॥
जिनवर की भक्ति से होते, विघ्न समूह अन्त जानो ।
भूत शाकिनी सर्प शांत हों, विष निर्विष होता मानो ॥७॥
अन्वयार्थ : अरिहंतादि पंच परमेष्ठी भगवान का स्तवन करने से विघ्नों के समूह नष्ट हो जाते हैं एवं शाकनि, डाकनी, भूत, पिशाच, सर्प, सिंह, अग्नि, आदि का भय नहीं रहता और बड़े हलाहल विष भी अपना असर त्याग देते हैं ।
(पुष्पांजलि क्षेपण करें)