देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥टेक॥पहुपवृष्टि महा इष्ट, देवदुंदुभी सुभिष्ट,शोक करै भृष्ट सो, अशोकतरु बड़ाई ॥देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥१॥सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चित सुहात,चमर फरहरात मनो, भगति अति बढ़ाई ॥देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥२॥'द्यानत' भामण्डल में, दीसैं परजाय सात,बानी तिहुँकाल झरै, सुरशिवसुखदाई ॥देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥३॥
अर्थ : (इस भजन में समवशरण का वर्णन है।)
मैंने आज समवशरण में विराजित श्री जिनराज के दर्शन किए हैं। उसे देखकर लगता है कि मानो मुझे राज-ऋद्धि मिली है।
उस समवशरण में हो रही पुष्पवृष्टि महाइष्टकारी है, कानों को मधुर लगनेवाली देवदुंदुभि का नाद प्रियकर है । सारे शोक-संताप को दूर करनेवाला है अशोक वृक्ष । ये सब यश-वृद्धि के परिचायक हैं।
सिंहासन प्रकाश में झिलमिला रहा है, तीन छत्र मन को भा रहे हैं, चमर ढोरे जा रहे हैं जिससे स्वामी के प्रति भक्ति व बहुमान प्रगट हो रहा है।
द्यानतरायजी कहते हैं -- उनके प्रभा-मण्डल में सात भव की घटनाएँ दिखाई देती हैं और तीनों संक्रांति काल में प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरती है जो स्वर्ग व मोक्ष का सुख प्रदान करनेवाली है।