देखो भाई! आतमराम विराजै
छहों दरब नव तत्त्व ज्ञेय हैं, आप सुज्ञायक छाजै ॥टेक॥
अर्हंत सिद्ध सूरि गुरु मुनिवर, पाचौं पद जिहिमाहीं ।
दरसन ज्ञान चरन तप जिहिमें, पटतर कोऊ नाहीं ॥१॥
ज्ञान चेतना कहिये जाकी, बाकी पुद्गलकेरी ।
केवलज्ञान विभूति जासुकै, आन विभौ भ्रमचेरी ॥२॥
एकेन्द्री पंचेन्द्री पुद्गल, जीव अतिन्द्री ज्ञाता ।
'द्यानत' ताही शुद्ध दरबको जानपनो सुखदाता ॥३॥
अर्थ : हे साधक ! ज्ञाता-दृष्टा होकर अपने स्वरूप को देखो, देखो आत्मा किस प्रकार विराजित है ! यह सबका ज्ञायक है, सबको जाननेवाला है। छह द्रव्य व नौ तत्व सब इसके ज्ञेय हैं।
अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु - ये पाँच पद आत्मा में ही हैं इनमें दर्शन, ज्ञान, आचरण व सप की उत्कृष्ट स्थिति होती हैं। ये अतुल (तुलनारहित) हैं इनका कोई दूसरा प्रतिरूप नहीं है।
इस आत्मा में तो केवल ज्ञान-चेतना ही है, जो इसकी संपदा है। इसके अतिरिक्त शेष सब तो पुद्गल है, पुद्गलजन्य है। इन्हीं के चरणों में केवलज्ञान रूपी संपदा लोटती है । यह विधा अन्य जनों में नहीं है अर्थात् अन्य जनों में तो इसका भ्रामक रूप ही है अर्थात् इसकी समझ ही भ्रमपूर्ण है ।
चाहे एकेन्द्री से पंचेन्द्री तक हों, चाहे पुद्गल हो, इन सबका ज्ञाता तो केवल जीव ही है, जो अतीन्द्रिय ज्ञान का ज्ञाता है । द्यानतराय कहते हैं कि ऐसे ही शुद्ध जीवद्रव्य के स्वरूप को जानो / उसका बोध ही सब सुखों का दाता है, सुख प्रदान करनेवाला है ।