जय अकम्पनाचार्य आदि सात सौ साधु मुनिव्रत धारी बलि ने कर नरमेघ यज्ञ उपसर्ग किया भीषण भारी ॥ जय जय विष्णुकुमार महामुनि ऋद्धि विक्रिया के धारी किया शीघ्र उपसर्ग निवारण वात्सल्य करुणाधारी ॥ रक्षा-बन्धन पर्व मना मुनियों का जय-जयकार हुआ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन घर-घर मंगलाचार हुआ ॥ श्री मुनि चरणकमल में वन्दूँ पाऊँ प्रभु सम्यग्दर्शन भक्ति भाव से पूजन करके निज स्वरूप में रहूँ मगन ॥ ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
जन्म-मरण के नाश हेतु प्रासुक जल करता हूँ अर्पण राग-द्वेष परिणति अभाव कर निज परिणति में करूँ रमण ॥ श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा
भव सन्ताप मिटाने को मैं चन्दन करता हूँ अर्पण देह भोग भव से विरक्त हो निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्य: चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
अक्षयपद अखंड पाने को अक्षत धवल करूँ अर्पण हिंसादिक पापों को क्षय कर निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
कामबाण विध्वंस हेतु मैं सहज पुष्प करता अर्पण क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परिणति में करूँ रमण ॥ श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
क्षुधारोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण विषयभोग की आकांक्षा हर निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीपज्योति करता अर्पण सम्यग्दर्शन का प्रकाश पा निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा
अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण सम्यग्ज्ञान हृदय प्रकटाऊँ निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा
मुक्ति प्राप्ति हित उत्तम फल चरणों में करता हूँ अर्पण मैं सम्यक्चारित्र प्राप्त कर निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा
शाश्वत पद अनर्घ्य पाने को उत्तम अर्घ्य करूँ अर्पण रत्नत्रय की तरणी खेऊँ निज परिणति में करूँ रमण ॥श्री.॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जयमाला
वात्सल्य के अंग की, महिमा अपरम्पार विष्णुकुमार मुनीन्द्र की, गूँजी जय-जयकार ॥
उज्जयनी नगरी के नृप श्रीवर्मा के मंत्री थे चार बलि, प्रहलाद, नमुचि वृहस्पति चारों अभिमानी सविकार ॥ जब अकम्पनाचार्य संघ मुनियों का नगरी में आया सात शतक मुनि के दर्शन कर नृप श्रीवर्मा हर्षाया ॥ सब मुनि मौन ध्यान में रत, लख बलि आदिक ने निंदा की कहा कि मुनि सब मूर्ख, इसी से नहीं तत्त्व की चर्चा की ॥ किन्तु लौटते समय मार्ग में, श्रुतसागर मुनि दिखलाये वाद-विवाद किया श्री मुनि से, हारे, जीत नहीं पाये ॥ अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने आये खड्ग उठाते ही कीलित हो गये हृदय में पछताये ॥ प्रात: होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन देश-निकाला दिया मंत्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ॥ चारों मंत्री अपमानित हो पहुँचे नगर हस्तिनापुर राजा पद्मराय को अपनी सेवाओं से प्रसन्न कर ॥ मुँह-माँगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर जब चाहूँगा तब ले लूँगा, बलि ने कहा नम्र होकर ॥ फिर अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों सहित नगर आये बलि के मन में मुनियों की हत्या के भाव उदय आये ॥ कुटिल चाल चल बलि ने नृप से आठ दिवस का राज्य लिया भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वेष से कार्य किया ॥ हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्व ध्यान में लीन हुए नश्वर देह भिन्न चेतन से, यह विचार निज लीन हुए ॥ यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंग विचित्र दान किमिच्छक देता था, पर मन था अति हिंसक अपवित्र ॥ पद्मराय नृप के लघु भाई, विष्णुकुमार महा मुनिवर वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ॥ किया गमन आकाश मार्ग से, शीघ्र हस्तिनापुर आये ऋद्धि विक्रिया द्वारा याचक, वामन रूप बना लाये ॥ बलि से माँगी तीन पाँव भू, बलिराजा हँसकर बोला जितनी चाहो उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ॥ हँसकर मुनि ने एक पाँव में ही सारी पृथ्वी नापी पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी ॥ ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा क्षमा-क्षमा कह कर बलि ने, मुनिचरणों में मस्तक रक्खा ॥ शीतल ज्वाला हुई अग्नि की श्री मुनियों की रक्षा की जय-जयकार धर्म का गूँजा, वात्सल्य की शिक्षा दी ॥ नवधा भक्तिपूर्वक सबने मुनियों को आहार दिया बलि आदिक का हुआ हृदय परिवर्तन जय-जयकार किया ॥ रक्षासूत्र बाँधकर तब जन-जन ने मंगलाचार किये साधर्मी वात्सल्य भाव से, आपस में व्यवहार किये ॥ समकित के वात्सल्य अंग की महिमा प्रकटी इस जग में रक्षा-बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्भ हुआ जग में ॥ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा दिन था रक्षासूत्र बँधा कर में वात्सल्य की प्रभावना का आया अवसर घर-घर में ॥ प्रायश्चित्त ले विष्णुकुमार ने पुन: व्रत ले तप ग्रहण किया अष्ट कर्म बन्धन को हरकर इस भव से ही मोक्ष लिया ॥ सब मुनियों ने भी अपने-अपने परिणामों के अनुसार स्वर्ग-मोक्ष पद पाया जग में हुई धर्म की जय-जयकार ॥ धर्म भावना रहे हृदय में, पापों के प्रतिकूल चलूँ रहे शुद्ध आचरण सदा ही धर्म-मार्ग अनुकूल चलूँ ॥ आत्मज्ञान रुचि जगे हृदय में, निज-पर को मैं पहिचानूँ समकित के आठों अंगों की, पावन महिमा को जानूँ ॥ तभी सार्थक जीवन होगा सार्थक होगी यह नर देह अन्तर घट में जब बरसेगा पावन परम ज्ञान रस मेह ॥ पर से मोह नहीं होगा, होगा निज आतम से अति नेह तब पायेंगे अखंड अविनाशी निजसुखमय शिवगेह ॥ रक्षा-बंधन पर्व धर्म का, रक्षा का त्यौहार महान रक्षा-बंधन पर्व ज्ञान का रक्षा का त्यौहार प्रधान ॥ रक्षा-बंधन पर्व चरित का, रक्षा का त्यौहार महान रक्षा-बंधन पर्व आत्म का, रक्षा का त्यौहार प्रधान ॥ श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सात शतक को करूँ नमन मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महामुनि को वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
रक्षा बन्धन पर्व पर, श्री मुनि पद उर धार मन-वच-तन जो पूजते, पाते सौख्य अपार ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)