तुम सुनियो साधो! मनुवा मेरा ज्ञानी ॥टेक॥सत्गुरु भैंटा संसय मैटा, यह नीकै करि जानी ।चेतनरूप अनूप हमारा, और उपाधि विरानी ॥१॥पुदगल भांडा आतम खांडा, यह हिरदै ठहरानी ।छीजौ भीजौ कृत्रिम काया, मैं निरभय निरवानी ॥२॥मैं ही देखौं मैं ही जानौं, मेरी होय निशानी ।शबद फरस रस गंध न धारौं, ये बातैं विज्ञानी ॥३॥जो हम चीन्हांसो थिर कीन्हां, हुए सुदृढ़ सरधानी ।'भूधर' अब कैसे उतरैया, खड्ग चढ़ा जो पानी ॥४॥
अर्थ : हे साधक! सुनो, मेरा मनुआ (आत्मा) ज्ञानवान है। सत्गुरु से भेंट होने के पश्चात् हमारा संशय मिट गया है और हमने यह भली प्रकार से जान लिया है कि हमारा तो मात्र एक चैतन्य स्वरूप है जो निराला है, शेष सभी उपाधियाँ बिरानी हैं, अर्थात् परायी हैं, हमारी नहीं हैं, हमसे भिन्न व अलग हैं।
इस पुद्गल देह में आत्मा 'म्यान में तलवार' की भांति है, जैसे तलवार व म्यान पृथक्-पृथक् हैं वैसे ही आत्मा व देह पृथक्-पृथक् हैं, ऐसी प्रतीति हृदय में धारण करो।
देह तो कृत्रिम है, बनावटी है, नश्वर है, नष्ट होनेवाली है इसलिए यह देह चाहे नष्ट हो, चाहे भीगे मेरा कुछ नहीं जिंगड़ेगा, मैं पूर्णत: निर्भय हूँ और निर्वाण पाने की क्षमतावाला हूँ।
मैं (आत्मा) ही जानता हूँ, मैं ही देखता हूँ। यह जानना-देखना ही मेरी निशानी है, लक्षण है । ये शब्द-रस-गंध-स्पर्श मेरे (लक्षण, गुण) नहीं हैं ; आत्मा इन्हें धारण नहीं करता-यह ज्ञान ही विशिष्ट ज्ञान है, विज्ञान है।
पुद्गल से भिन्न हमने जो वास्तविक रूप में आत्म-परिचय किया है, उसी में एकाग्र होकर, स्थिर होकर, उस ही की दृढ़ श्रद्धा करो। भूधरदास कहते हैं कि जिस प्रकार तलवार पर चढ़ी धार नहीं उतरती उसी प्रकार आत्मा के प्रति श्रद्धा का जो भाव चढ़ा है, दृढ़ हुआ है वह भी नहीं उतरेगा।