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श्री
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ध्यानकृपान पानि गहि नासी
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तर्ज : धन्य-धन्य है घड़ी आज की

ध्यानकृपान पानि गहि नासी, त्रेसठ प्रकृति अरी ।
शेष प्चासी लाग रही है, ज्याँ जेवरी जरी ॥टेक॥

दुठ अनंगमातंगभंगकर, है प्रबलंगहरी ।
जा पदभक्ति भक्तजनदुख-दावानल मेघझरी ॥
ध्यानकृपान पानि गहि नासी, त्रेसठ प्रकृति अरी ॥१॥

नवल धवल पल सोहै कलमें, क्षुधतृषव्याधि टरी ।
हलत न पलक अलक नख बढत न गति नभमाहिं करी ॥
ध्यानकृपान पानि गहि नासी, त्रेसठ प्रकृति अरी ॥२॥

जा विन शरन मरन जर धरधर, महा असात भरी ।
'दौल' तास पद दास होत है, वास मुक्तिनगरी ॥
ध्यानकृपान पानि गहि नासी, त्रेसठ प्रकृति अरी ॥३॥



अर्थ : इस पद में अरिहन्त की भक्ति की गई है जिन्होंने ध्यानरूपी तलवार हाथ में लेकर कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों का नाश कर दिया है, शेष पिचासी प्रकृतियाँ जली हुई जेवड़ी (रस्सी) की भाँति रह गई हैं अर्थात्‌ वे अब नवीन कर्म-बंधन नहीं कर सकतीं ।

जो कामरूपी दृढ़ हाथी को भंग करने के लिए बलवान सिंह हैं; जिनके चरण-कमलों की भक्ति, भक्तजनों की दुःखरूपी अग्नि कों शमन करने के लिए - मेघ की झड़ी के समान है।

जिनके शरीर में श्वेत रक्त है, जिनके क्षुधा व तृषा की बाधा नहीं है । जिनके पलक टिमटिमाते नहीं हैं, न नख बढ़ते हैं और न केश बढ़ते हैं । वे ऊपर आकाश में ही चलते हैं, गमन करते हैं अर्थात्‌ केवलज्ञान होने के पश्चात्‌ वे पृथ्वी से ऊपर गमन करते हैं।

जिनको शरण के बिना, अनेक बार बुढ़ापा धारण कर-कर के, रोगों से ग्रस्त होकर असाता से, दुःखभरी मृत्यु होती है । दौलतराम कहते हैं कि उनके चरणों में रहने से मुक्तिपुरी (मोक्ष) में रहने का सौभाग्य मिलता है ।
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