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श्री
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मोही जीव भरमतम ते नहि
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राग : तिलक-कामोद, तर्ज : ज्ञानी जीव निवार भरमतम

मोही जीव भरमतम ते नहि, वस्तु स्वरूप लखे है जैसे ॥टेक॥

जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार परिनवे वैसे ।
वृथा दुखी शठ कर विकलप यों, नहिं परिनवै परिनवै ऐसे ॥
मोही जीव भरमतम ते नहि, वस्तु स्वरूप लखे है जेसे ॥१॥

अशुचि सरोग समूल जड़मूरत, लखत विलात गगन घन जैसे ।
सो तन ताहि निहार अपुनपों, चाहत अबाध रहे थिर कैसे ॥
मोही जीव भरमतम ते नहि, वस्तु स्वरूप लखे है जेसे ॥२॥

सुत तिय बंधु वियोग योग यों ज्यों सराय जन निकसे पैसे ।
विलखत हरखत शठ अपने लखि रोवत हंसत मत्तजन जैसे ॥
मोही जीव भरमतम ते नहि, वस्तु स्वरूप लखे है जेसे ॥३॥

जिन रवि बैन किरण लहि निज निज, रूप सुभिन्न कियो पर मेंसैं ।
सो जल मल 'दौल' को, चिर चित मोह विलास हृदैंसै ॥
मोही जीव भरमतम ते नहि, वस्तु स्वरूप लखे है जेसे ॥४॥



अर्थ : मोही जीव अपने भ्रमरूपी अन्धकार के कारण वस्तु-स्वरूप को जैसा है, वैसा नहीं देख पाता ।
चेतन और अचेतन पदार्थों की जो-जो परिणति हो रही है, वह वैसी ही हो रही है जैसी होनी है, उसे कोई बदल नहीं सकता, किन्तु यह मूर्ख व्यर्थ ही ऐसे विकल्प करके दुःखी होता है कि यह वस्तु ऐसे क्‍यों नहीं परिणमित हो रही है, ऐसे क्‍यों हो रही है, इसे ऐसे नहीं परिणमित होना चाहिए, इसे ऐसे परिणमित होना चाहिए।
यह शरीर अपवितन्न है, रोगयुक्त है, मलिन है, जडमूर्ति है और आकाश में बादलों की तरह क्षण-भर में दिखकर विलीन हो जानेवाला है; किन्तु यह मोही जीव उसमें अपनापन देखता हैं और चाहता है कि यह अवाधरूप से स्थिर कैसे रहे।
स्त्री-पुत्र व भाई-बन्धुओं का संयोग-वियोग तो वास्तव में ऐसा है जैसा कि धर्मशाला में यात्रियों का आवागमन, किन्तु यह मूर्ख उन्हे अपने मानकर उनके वियोग-संयोग में इस प्रकार दुःखी-सुखी होता है, इस प्रकार रोता-हँसता है, जैसे कोई पागल हो।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि जिन जीवों ने जिनेन्द्र भगवान रूपी सूर्य की वचनरूपी किरणों को प्राप्त करके पर में से अपना रूप भलीभाँति अलग कर लिया है, वे ही जगत के मुकुट हैं और उन्होंने ही अपने हृदय से अनादिकालीन मोह के विलास को बाहर निकाला है ।
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