nikkyjain@gmail.com

🙏
श्री
Click Here

लखो जी या जिय भोरे
Karaoke :

लखो जी या जिय भोरे की बातें, नित करत अहित हित-घातें ॥

जिन गणधर मुनि देशव्रती, समकिती सुखी नित जातें ।
सो पय ज्ञान न पान करत न अघात विषय-विष खातें ॥

दुखस्वरूप दुखफलद जलद सम, टिकत न छिनक विलातें ।
तजत न जगत न भजत पतित नित, रंच न फिरत तहाँ तें ॥

देह गेह धन नेह ठान अति, अघ संचत दिन रातें ।
कुगति विपति फल की न भीत, निश्चिन्त प्रमाद दशा तें ॥

कभी न होय आपनों पर द्रव्यादि पृथक चतुधा तें ।
पै अपनाय लहत दुख शठ नभ, हतन चलावत लातैं ॥

शिवगृहद्वार सार नरभव यह, लहि दश दुर्लभता तें ।
खोवत ज्यों मणि काग उड़ावत, रोवत रंकपना तें ॥

चिदानन्द निर्द्वन्द स्वपद तज, अपद विपदपद रातें ।
कहत सुसिख गुरु गहत नहीं उर, चहत न सुख समता तें ॥

जैन बैन सुनि भवि बहु भवहर, छूटे द्वन्द दशा तें ।
तिनकी सुकथा सुनत न मुनत न, आतम बोध कला तें ॥

जे जन समुझि ज्ञान-दृग-चारित, पावन पय वर्षा तें ।
ताप विमोह हर्यो तिनको जस, 'दौल' त्रिभौन विख्यातें ॥



अर्थ : हे भाइयो ! जरा इस अज्ञानी जीव की बात तो देखो ! यह हमेशा अपने हित का नाश करके अपना अहित करता रहता है। यह अज्ञानी जीव, जिसके कारण जिनेन्द्र, मुनिराज, देशव्रती श्रावक और सम्यग्दृष्टि जीव सदा सुखी रहते है, उस ज्ञानरूपी अमृत का पान तो नहीं करता है और विषयरूपी विष को खाते हुए कभी इसका जी नहीं भरता है।
संसार के ये विषय दुःखस्वरूप है, दुःखरूप फल को देनवाले हे और बादल के समान क्षणभंगुर हैं, अनित्य हैं; किन्तु फिर भी यह अज्ञानी जीव उनकी ओर से किचित् भी विमुख नहीं होता, अपितु उन्हीं की इच्छा करता है।
यह अज्ञानी जीव शरीर, मकान, धनादि से बहुत प्रेम करके रात-दिन घोर पाप का सचय करता रहता है। इसे इस तरह का कोई भय नही है कि उसे इसके फलस्वरूप खोटी गति में जाकर घोर दुःख सहन करना होगा । यह तो प्रमाद दशा में निश्चिन्त पड़ा है।
यद्यपि जगत के समस्त परपदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव-इन चारों ही प्रकारों से पृथक्‌ हैं, वे कदापि अपने नहीं हो सकते हैं, परन्तु यह मूर्ख उनको अपना समझकर घोर दुख उठाता है। मानो आकाश को मारने के लिए लात मारता है।
यह अज्ञानी जीव, जो मनुष्य भव मोक्षरूपी मन्दिर का द्वार है, अत्यन्त श्रेष्ठ है और बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है, उसे भी व्यर्थ ही खो रहा है और वैसी बात कर रहा है जैसे कोई मूर्ख कौआ उड़ाने के लिए बहुमूल्य मणि को फेंक दे और फिर रंक होकर रोवे।
यह अज्ञानी जीव अपने चिदानन्दस्वरूपी निर्दधन्द्र पद को छोड़कर विपत्ति के कारणभूत परपदों में लीन हो रहा है। श्रीगुरु भली शिक्षा देते हैं, पर यह उसे भी अपने हृदय में धारण नहीं करता। समताभाव से उत्पन्न सुख की अभिलाषा नहीं करता। अनन्त जीव जिनवाणी को सुनकर संसार की द्न्द्र दशा से मुक्त हो गये हैं, किन्तु यह जीव उनकी कथा भी नहीं सुनता, आत्मज्ञान की कला प्रकट करके उसे स्वीकार भी नहीं करता।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि जिन जीवों ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पावन जलवर्षा से अपने मोहरूपी ताप को दूर कर दिया है, उनकी कीर्ति तीनों लोकों में विख्यात हो गयी है।
Close

Play Jain Bhajan / Pooja / Path

Radio Next Audio

देव click to expand contents

शास्त्र click to expand contents

गुरु click to expand contents

कल्याणक click to expand contents

अध्यात्म click to expand contents

पं दौलतराम कृत click to expand contents

पं भागचंद कृत click to expand contents

पं द्यानतराय कृत click to expand contents

पं सौभाग्यमल कृत click to expand contents

पं भूधरदास कृत click to expand contents

पं बुधजन कृत click to expand contents

पर्व click to expand contents

चौबीस तीर्थंकर click to expand contents

दस धर्म click to expand contents

selected click to expand contents

नित्य पूजा click to expand contents

तीर्थंकर click to expand contents

पाठ click to expand contents

स्तोत्र click to expand contents

द्रव्यानुयोग click to expand contents

द्रव्यानुयोग click to expand contents

द्रव्यानुयोग click to expand contents

loading