मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै ।भववन भ्रमत दुखी लखि याको, सुगुरुदयालु उचारै ॥टेक॥विषय भुजंगमय संग न छोड़त, जो अनन्तभव मारै ।ज्ञान विराग पियूष न पीवत, जो भवव्याधि विडारै ॥मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै ॥१॥जाके संग दुरैं अपने गुन, शिवपद अन्तर पारै ।ता तनको अपनाय आप चिन-मूरतको न निहारै ॥मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै ॥२॥सुत दारा धन काज साज अघ, आपन काज विगारै ।करत आपको अहित आपकर, ले कृपान जल दारै ॥मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै ॥३॥सही निगोद नरककी वेदन, वे दिन नाहिं चितारै ।'दौल' गई सो गई अबहू नर, धर दृग-चरन सम्हारै ॥मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै ॥४॥
अर्थ : संसार में भ्रमण करते हुए दुःखी जीव को देखकर दयालु सुगुरु हितकारी उपदेश देते हुए समझाते हैं - हे मोही जीव ! तू तेरे हित की सीख को, उपदेश को क्यों नहीं मानता !
विषय-भोगरूपी भयानक नाग का तू साथ नहीं छोड़ता, जो अनन्त काल तक तुझे भव-भ्रमण कराकर मारता है, पीड़ा पहुँचाता है। संसार से वैराग्य और ज्ञानरूपी अमृत का तू पान क्यों नहीं करता जो तुझे भव-भ्रमण की व्याधि से छुड़ा ले, छुटकारा दिला दे।
जिसके साथ रहने से अपने सभी गुण दूर हो जाते हैं, छुप जाते हैं और मुक्ति अर्थात् मोक्ष उतना ही दूर हो जाता है, ऐसे तन को तो तू अपना रहा है और अपने चिदानन्द चिन्मयस्वरूप की ओर नहीं देखता !
पुत्र, स्त्री, धन, उनके कार्य व सज्जा, पाप ये सब अपना कार्य बिगाड़ते हैं; इस प्रकार तू स्वयं ही अपने आपका अहित करता है और हाथ में तलवार लेकर जल को काटने के समान निरर्थक श्रम करता है।