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श्री
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सबमें हम हममें सब ज्ञान
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राग विलावल, हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम


सबमें हम हममें सब ज्ञान, लखि बैठे दृढ़ आसन तान ॥टेक॥
भूमिमाहिं हम हममें भूमि, क्यों करि खोदैं धामाधूम ॥१॥
नीर-माहिं हम हममें नीर, क्यों कर पीवैं एक शरीर ॥२॥
आगमाहिं हम हममें आगि, क्यों करि जालैं हिंसा लागि ॥३॥
पौन माहिं हम हममें पौन, पंखा लेय विराधै कौन ॥४॥
रूखमाहिं हम हममें रूख, क्योंकरि तोड़ें लागैं भूख ॥५॥
लट चैंटी माखी हम एक, कौन सतावै धारि विवेक॥६॥
खग मृग मीन सबै हम जात, सबमें चेतन एक विख्यात ॥७॥
सुर नर नारक हैं हम रूप, सबमें दीसै है चिद्रूप ॥८॥
बालक वृद्ध तरुन तनमाहिं, षंढ नारि नर धोखा नाहिं ॥९॥
सोवन बैठन वचन विहार, जतन लिये आहार निहार ॥१०॥
आयो लैंहिं न न्यौते जाहिं, परघर फासू भोजन खाहि ॥११॥
पर संगतिसों दुखित अनाद, अब एकाकी अमृत स्वाद ॥१२॥
जीव न दीसै है जड़ अंग, राग दोष कीजै किहि संग ॥१३॥
निरमल तीरथ आतमदेव, 'द्यानत' ताको निशिदिन सेव ॥१४॥
सबमें हम हममें सब ज्ञान, लखि बैठे दृढ़ आसन तान ॥



अर्थ : (यह भजन मुनि के चिन्तवन से सम्बन्धित है। मुनि चिन्तवन करते हुए कभी विचार करते हैं कि --)

हम चैतन्यस्वरूप हैं, दृष्टा और ज्ञाता हैं । दृष्टा होकर हम सब (पदार्थों/ज्ञेयों) में व्याप्त हैं और ज्ञाता होकर हम उन सबको जानते हैं । दृढ़ आसन धारणकर ध्यान/चिन्तवन करते हुए हमें स्पष्ट दृष्टिगत होता है कि पुद्गल पर हैं और वह चैतन्य से भिन्न है । जगत में जितने भी जीव हैं वे सब चेतन हैं, वे हमारे जैसे ही हैं, स्वरूप की दृष्टि से हम और वे समान हैं, पर प्रत्येक जीव अपने में स्वतंत्र (इकाई) है।
यह भूमि एकेन्द्रिय जीव है, चेतन द्रव्य है और हम भी चेतन हैं अर्थात् उसमें भी हमारे समान चेतना है । तब हम धमाधम करते हुए पृथ्वी को क्यों खोदें?

जल भी एकेन्द्रिय जीव है और हम भी जीव हैं; स्वरूप की दृष्टि से दोनों समानरूप हैं तब वह समानरूप जल कैसे पीया जावे?

ज्ञान में अग्नि का स्वरूप प्रत्यक्ष है, वह भी एकेन्द्रिय है, उसमें भी चेतन तत्व है फिर अग्नि जलाकर हिंसा का दोष क्यों लगाया जाए?
पवन में भी जीव है, हमें यह ज्ञान है कि तब पंखा झलकर पवनकायिक जीवों की विराधना क्यों करें?
वृक्ष में भी जीव होता है फिर भूख लगने पर उन्हें तोड़कर क्यों खावें?
लट, चींटी, मक्खी सब प्राणधारी हैं यह विवेक धारण करने पर इनको कौन सता सकता है?
पशु-पक्षी, जलचर सब हमारे जैसे ही हैं, सबमें जीव है, सब चेतन हैं ।
इसी भाँति देवों में, मनुष्यों में, नारकियों में सभी में समानरूप चैतन्य है ।
बालक में, बूढ़े में, युवक में, नपुंसक-स्त्री-पुरुष इन सभी देहों में एक-सा चेतन तत्त्व है, इसमें किसी प्रकार की शंका / धोखा नहीं है ।
इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले मुनि / भव्यजीव सोना-उठना-बैठना-चलना बोलना, आहार-निहार आदि सब यत्नपूर्वक करते हैं अर्थात् ये क्रियाएँ करते समय सावधान रहते हैं कि इन जीवों की विराधना न हो जाये।
वे (मुनि) न तो अपने निमित्त कहीं से आया हुआ आहार (भोजन) करते हैं न किसी के निमन्त्रण पर आहार हेतु आम है, बिना पूध-निश्चित किये हुए ही दूसरे के घर में प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं।
यह जीव 'पर' की संगति में दु:ख हो पाता है और जब एकाकी / अकेला अपने स्वरूप में रमण करता है तो आनन्दित होता है, सुखी होता है ।
वह चिन्तवन करता है कि देह पुद्गल है, रूपी है वह ही दिखाई देती है जीव तो अदृश्य है, वह तो दिखाई देता नहीं ।
फिर राग-द्वेष किससे किया जाए? केवल आत्मा ही निर्मल किनारा है, स्थान है, तीर्थ है / धानतराय कहते हैं कि दिन-रात इसी की सेवा करो।
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