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त्रिभुवन आनंदकारी जिन
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त्रिभुवन आनंदकारी, जिन छवि थारी, नैन-निहारी ॥

ज्ञान अपूरब उदय भयो अब, या दिन की बलिहारी ।
मो उर मोद बढ़ो जु नाथ ! सो, कथा न जात उचारी ॥१॥

सुन घन-घोर मोर-मुद ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी ।
जाहि लखत झट झड़ित मोह-रज, होय सो भवि अविकारी ॥२॥

जाकी सुन्दरता सु पुरन्दर, शोभ लजावन हारी ।
निज-अनुभूति सुधारस पुलकित, वदन मदन-रिपु हारी ॥३॥

शूल-दुकूल न ब्याल-माल पुनि, मुनि-मन-मोद प्रसारी ।
अरुण न नयन भ्रमें नहिं सैन न, लंक न बंक सम्हारी ॥४॥

तातें विधि-विभाव क्रोधादि न, लखियत हे जगतारी ।
पूजत पातिक-पुंज पलावत, ध्यावत शिव-विस्तारी ॥५॥

कामधेनु सुरतरु चिन्तामणि, इक भव सुख करतारी ।
तुम छवि लखत मोदतें जो सुर, तस तुम-पद करतारी ॥६॥

महिमा कहत न लहत पार सुरगुरु हू की बुधि हारी ।
वारि' कहैं किम 'दौल' चहैं इम, देहु दशा तुम धारी ॥७॥



अर्थ : हे जिनेन्द्रदव ! आज मेने आपकी तीनो लोकों को आनन्दित करनेवाली मुद्रा को अपनी आँखों से देखा है ।
हे नाथ ! आज का यह दिन बहुत अच्छा है। मैं इसकी बारम्बार बलिहारी जाता हूँ कि आज मुझमे अपूर्व ज्ञान का उदय हुआ है । हे स्वामी ! आज मेरे हृदय में ऐसा आनन्द उत्पन्न हुआ है, जिसे वचनों से नहीं कहा जा सकता ।
हे प्रभो ! जिस प्रकार मेघगर्जना सुनकर मोर के हर्ष का कोई पार नहीं रहता या धन का भण्डार पाकर भिखारी के हर्ष का कोई पार नहीं रहता, उसी प्रकार आज आपके दर्शन करके मेरे हर्ष का कोई पार नहीं रहा है । आपके दर्शन से मेरा मोहकर्म शीघ्र झड़ गया है और निर्मलता प्राप्त हो गयी है ।
हे जिनेन्द्रदेव ! आपकी सुन्दरता इन्द्र की शोभा को भी लज्जित करनेवाली है । आपका आत्मानुभूतिरूपी अमृत से प्रफुल्लित मुख कामदेवरूपी शत्रु को परास्त कर देनेवाला है ।
हे देव ! आपके पास न कोई त्रिशूल आदि अस्त्र हैं, न कोई वस्त्र हैं और न कोई सर्प-माला आदि हैं; अपितु आप मुनियों के मन के आनन्द को बढ़ानेवाले हैं। आपके नेत्रों में कोई लालिमा नहीं है, कोई चंचलता नहीं है और कोई संकेतादि भी नहीं है। आपके कटिभाग में भी किसी प्रकार की कोई वक्रता नहीं है ।
हे जगत को तारनेवाले ! आपमें कर्मजनित क्रोधाग्नि भाव भी नहीं दिखाई देते हैं। हे प्रभो ! आपको पूजने से पाप के समूह भाग जाते है और आपका ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
हे प्रभो ' कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिन्तामणि-ये सब तो एक ही जन्म में सुख देते हैं, किन्तु आपकी छवि तो प्रसन्नतापूर्वक देखनेवाले को आपके ही समान पद को दे देती है ।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि है प्रभो ! आपकी महिमा का कथन करने में तो देवताओं के गुरु भी पार नही पा सकते, उनकी भी बुद्धि हार जाती है, तब फिर मै आपकी महिमा का कथन कैसे कर सकता हूँ ? है प्रभो ' मैं तो आप पर वलिहारी जाता हूँ और चाहता हूँ कि मुझे भी वही दशा दीजिए, जिसे आपने प्राप्त किया है ।
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