ए रे वीर रामजीसों कहियो बात ॥टेक॥लोक निंदतैं हमकों छांडी, धरम न तजियो भ्रात ॥१॥आप कमायो हम दुख पायो, तुम सुख हो दिनरात ॥२॥'द्यानत' सीता थिर मन कीना, मंत्र जपै अवदात ॥३॥ए रे वीर रामजीसों कहियो बात ॥(राग : वसन्त, रघुपति राघव राजाराम)कहै राघौ सीता, चलहु गेह, नैननि में आय रह्यो सनेह ॥टेक॥हमऊपर तो तुम ही उदास, किन देखों सुतमुख चन्द्रमास ॥१॥लछमन भामण्डल हनू आय, सब विनती करि लगि रहे पाय ॥२॥'द्यानत' कछु दिन घर करो बास, पीछे तप लीज्यो मोह नास ॥४॥कहै सीताजी सुनो रामचन्द्र, संसार महादुख-वृच्छकन्द ॥टेक॥पंचेन्द्री भोग भुजंग जानि, यह देह अपावन रोगखानि ॥१॥यह राज रजमयी पापमूल, परिगृह आरंभ में खिन न भूल ॥२॥आपद सम्पद घर बंधु गेह, सुत संकल फाँसी नारि नेह ॥३॥जिय रुल्यो निगोद अनन्त काल, बिनु जागैं ऊर्ध्व मधि पाताल ॥४॥तुम जानत करत न आप काज, अरु मोहि निषेधो क्यों न लाज ॥५॥तब केश उपारि सबै खिमाय, दीक्षा धरि कीन्हों तप सुभाय ॥६॥'द्यानत' ठारै दिन ले सन्यास, भयो इन्द्र सोलहैं सुरग बास ॥७॥
अर्थ : रावण के घर रहने के कारण सीता को लोक-निंदावश घर से निर्वासित कर दिया गया। सारथि राम के आदेश के अनुसार सीता को जंगल में छोड़कर वापस आने लगा तो सीता ने उसके साथ अपने पति श्रीराम के लिए संदेश भिजवाया कि ओ भाई! श्रीराम से इतनी-सी बात कह देना कि तुमने लोक निन्दा के भय से हमको छोड़ दिया, परन्तु ऐसे ही किसी के भी कहने से घबराकर कभी धर्म को मत छोड़ देना! हमने जो कमाया, कर्म किया वह ही हमने भोगा, उपभोग किया अर्थात् दुःख उपजाये तो दुःख पाए। पर आप दिन-रात सुखी रहें, ऐसी भावना है। द्यानतराय कहते हैं कि इस प्रकार सीता ने अपने मन को स्थिर किया और पवित्र / निर्मल मंत्रों के जपन में लग गई।
रघुपति रामचन्द्र सीताजी कहते हैं कि अब घर चलो ! यह कहते समय उनके नेत्रों में सीताजी के प्रति अगाध प्रेम झलक रहा है। तुम हमारी ओर तो उदास हो, हमसे रुष्ट हो। किन्तु चन्द्रमा के समान कान्तिवान अपने पुत्रों की ओर तो देखो ! उनका ख्याल करके ही घर चली चलो! देखो! लक्ष्मण, हनुमान और तुम्हारा भाई भामण्डल आदि सभी आकर तुम्हारे पाँव लगकर विनती करते हैं। द्यानतराय कहते हैं कि राजा राम का अनुरोध है कि कुछ दिन घर में रहकर गृहस्थ का जीवन व्यतीत करो तत्पश्चात् मोह का नाश करने के लिए तप कर लेना। (आचार्य रविषेण के 'पद्मपुराण' के कथानक के अनुसार रावण के घर में रहने के कारण लोकनिन्दा व लांछनवश सीता को निर्वासित कर दिया गया। निर्वासन के पश्चात् भी अपने सतीत्व को सिद्ध करने के लिए सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। परीक्षा में निर्दोष सिद्ध होने के बाद श्रीराम सीता से घर चलने के लिए कहते हैं पर सीता अब घर चलने से अस्वीकार कर देती है और संन्यास धारण कर लेती है। प्रस्तुत भजन में राम द्वारा सीता को घर चलने का आग्रह करने का ही वर्णन है।)
सीताजी श्री रामचन्द्रजी से कहती हैं कि हे रामचन्द्र! सुनो, यह संसार अत्यन्त दु:खों का समूह है, पिंड है, वृक्ष है । पाँचों इन्द्रियों के भोग सर्प के समान विषयुक्त हैं । यह देह रोगों की खान है, अपवित्र है। यह राज्य मोह का, पाप का कारण (हेतु) है । इसके लिए किये जानेवाले आरम्भ में और परिग्रह में एक क्षण भी अपने आप को मत भूल। संपत्ति, घर, बंधु-बांधव आदि सब आपदा हैं, कष्ट देनेवाले हैं । पुत्र का प्रेम साँकल के समान बाँधनेवाला है और नारी का नेह फाँसी के समान है। यह जीव ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक व पाताललोक का ज्ञान न होने के कारण अनंतकाल तक निगोद में रुलता रहा। तुम जानते हुए भी अपने करने योग्य कार्य नहीं करते हो! और मुझे अपने योग्य कार्य करने से रोकने में भी लजाते क्यों नहीं हो? यह कहकर सबसे क्षमा माँगकर, केश-लुंचन करके सीताजी ने दीक्षा धारण की और तप किया। द्यानतराय कहते हैं कि इस प्रकार सांताजी ने संन्यास ले लिया और फिर सौलहवें स्वर्ग में जाकर इन्द्र पद प्राप्त किया। श्रीराम सीता से घर चलने का आग्रह करते हैं तो सीता प्रत्युत्तर में जो कहती है उसी का वर्णन है इस भजन में।