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श्रीचन्द्रप्रभनाथ-पूजन
(छप्पय)
चारुचरन आचरन, चरन चितहरन चिह्नचर
चंद-चंद-तनचरित, चंदथल चहत चतुर नर ॥
चतुक चंड चकचूरि, चारि चिद्चक्र गुनाकर
चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र-धनुरधर ॥
अन्वयार्थ : [चारु] सुन्दर चरणों और आचरण वाले, चित्त को हरने वाले चंद्रमा के चिन्ह से सुशोभित चरण, परम पवित्र चंद्रमा के सामान स्वच्छ [तनचरित] शरीर और चारित्र के धारक चन्द्रप्रभ भगवान, उन [चंदथल] चन्द्रप्रभ की शरण भक्त / धर्मात्मा चाहते हैं, जिन्होनें चार [चंड] निर्दयी (घातिया कर्म) कर्म को नष्ट कर दिया है, [चिदचक्र] चैतन्य समूह के चार गुणों (अनंत चतुष्टय) के भंडार / धारक हैं, जिन्हे निरंतर इंद्र, चक्रवर्ती, धनुषधारी [चूलनत] सभी नमस्कार करते हैं, ऐसे भगवान आप हैं ।
चर अचर हितू तारन तरन, सुनत चहकि चिर नंद शुचि
जिनचंद चरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रच्चि रुचि ॥
अन्वयार्थ : आप [चर] त्रस व [अचर] स्थावर जीवों के [हितू] हितकारी है (क्योकि उनकी अहिंसा का निरंतर आप उपदेश देते है) आप संसार को [तारन] स्वयं पार करने तथा [तरन] अन्यों को पार कराने वाले है । आपके [शुचि] पवित्र [चिरनंद] अनंतसुख की चर्चा सुनकर भव्य जीव प्रसन्न हो जाते है । ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान् के चरणों की [चरच्यो] पूजा करने को [चहत] इच्छा रखता हुआ मेरा चित रुपी चकोर नाच / (प्रसन्न हो) रहा है । अर्थात ऐसे चन्द्र प्रभु भगवान् की मैं हृदय से पूजा कर रहा हूँ ।
धनुष डेढ़ सौ तुङ्ग तनु, महासेन नृपनंद ।
मातु लछमना उर जये, थापौं चंद जिनंद ॥
अन्वयार्थ : शरीर डेढ़सौ धनुष [तुंग] ऊंचा, महासेन [नृप] राजा के [नंद] पुत्र, माता लछमना के उर से उत्पन्न चन्द्रप्रभ भगवान् की मैं यहाँ स्थापना करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

गंगाहृद निरमल नीर, हाटक भृंग भरा
तुम चरन जजौं वरवीर, मेटो जनम जरा ॥
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : हे [वर] श्रेष्ठ वीर ! [गंगाहृद] गंगा नदी का स्वच्छ [नीर] जल, [हाटक] स्वर्ण के [भृंग] घड़े में भरकर, मैं आपके चरणों की [जजों] पूजा करता हूँ । आप मेरे जन्म और बुढ़ापे को नष्ट कर दीजिये । श्री चन्द्रप्रभ भगवान् की [दुति] कांति [चंद] चंद्रमा समान है, उनके चरणों में [चंद] चंद्रमा का चिन्ह है, मैं मनवचनकाय और [अमंद] अच्छे/शुद्ध भावों से अपनी आत्मा का प्रकाश जागृत करने के लिये / आत्मा के भान के लिए उनकी [जजत] पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीखण्ड कपूर सुचंग, केशर रंग भरी
घसि प्रासुक जल के संग, भवआताप हरी
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मैं [श्रीखण्ड] चंदन और [सुचंग] श्रेष्ठ कपूर लेकर केशर के रंग से परिपूर्ण, प्रासुक जल में घिस कर आपको, अपने संसार के दुखों के निवारण हेतु, अर्पित करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल सित सोम समान, सम लय अनियारे
दिये पुंज मनोहर आन, तुम पदतर प्यारे
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : [सोम] चद्रमा के समान [सित] सफ़ेद शालीवन के [अनियारे] साबुत [तंदुल] चावलों के मनोहर पुंज लेकर आपके [पदतर] पूजनीय चरणों में अक्षय पद की प्राप्ति के लिए रख रहा हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

सुर द्रुम के सुमन सुरंग, गंधित अलि आवे
ता सों पद पूजत चंग, कामविधा जावे
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मैं [सुर] देवताओं के [द्रुम] वृक्षों अर्थात कल्पवृक्ष से [सुरंग] अच्छे रंगो के सुगन्धित, [अलि] भंवरो से मंडराते [सुमन] फूलों को [तासों] आपके चरणों में [चंग] उत्साहपूर्वक [काम बिथा] कामवासना को नष्ट करने के लिए रखता हूं ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

नेवज नाना परकार, इंद्रिय बलकारी
सो ले पद पूजौं सार, आकुलता-हारी
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : विभिन्न प्रकार के इंद्रियों को [बलकारी] शक्ति प्रदान करने वाले नेवज से अपनी [आकुलता हारी] क्षुधा की वेदना को नष्ट करने के लिए आपके [सार] श्रेष्ठ चरणों की पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

तम भंजन दीप संवार, तुम ढिग धारतु हौं
मम तिमिरमोह निरवार, यह गुण याचतु हौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मोह रूपी [तम] अन्धकार को [भंजन] नष्ट करने के लिए, [दीप संवार] दीप को प्रज्ज्वलित करके, आपके [ढिग] समक्ष, रखता हूँ क्योकि आपमें यह गुण है इसलिए मेरा [तिमिरमोह] मोह-अन्धकार दूर कर दीजिये ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

दसगंध हुतासन माहिं, हे प्रभु खेवतु हौं
मम करम दुष्ट जरि जाहिं, या तें सेवतु हौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मैं [दशगंध] दस प्रकार के सुगन्धित पदार्थो से धूप बना कर, दुष्ट कर्म को [जरि] जलाने के लिए, [हुताशन] अग्नि में [खेवतु] खेकर आप की प्रभु सेवा/पूजा कर रहा हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

अति उत्तम फल सु मंगाय, तुम गुण गावतु हौं
पूजौं तनमन हरषाय, विघन नशावतु हौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : मै सर्वोत्तम फलों को मंगाकर आपके गुणो को गाता हूँ, तन मन से हर्षित होकर आपकी मैं पूजा करता हूँ क्योकि आप विघ्नो को नष्ट करने वाले हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं
पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ॥
अन्वयार्थ : आठों [पुनीत] पवित्र द्रव्यों को [सजी] सजाकर, [आठों अंग नमों] आठों अंगो को झुक कर नमस्कार करता हुआ । आठवें हितकारी जिनेन्द्र भगवान चन्द्रप्रभू की बारम्बार, [अष्टम अवनी] आठवी पृथ्वी - सिद्धशिला, पर [गमों] जाने के लिए पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(पंचकल्याणक अर्घ्यावली)
कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भली
हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्मसिता ॥
अन्वयार्थ : चैत्र की [कलि] वदी पंचमी [अलि] बहुत [सुहात] अच्छी लगती है क्योकि इस दिन आप [गरभागम] गर्भ में पधारे थे और आपने जीवों को मंगल एवं [मोद भरी] प्रसन्नता प्रदान करी थी [हरि] इंद्र ने हर्षित होकर माता पिता की पूजा करी थी । हम आपका ध्यान करके [शर्मसिता] पवित्र सुख को प्राप्त करते है ।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा पंचम्यांगर्भमंगलंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कलि पौष एकादशि जन्म लयो, तब लोकविषै सुख थोक भयो
सुरईश जजैं गिरिशीश तबै, हम पूजत हैं नुत शीश अबै ॥
अन्वयार्थ : भगवान् आपने पौष [कलि] वदी एकादशी को जन्म लिया था उस समय समस्त लोक [सुखथोक] पूर्णतया सुखी हो गया था । [सुर ईश] तब इंद्र ने आपकी [गिरशीश] समेरू पर्वत पर ले जाकर [जजें] पूजा करी थी । हम यहाँ [अबै] अब आपकी मस्तक झुका कर नित्य पूजा करते हैं ।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा
निज ध्यान विषै लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ॥
अन्वयार्थ : आपने पौष [कलि] कृष्ण एकादशी [पर्व वरा] श्रेष्ठ पर्व के दिन अत्यंत [दुद्धर] दुर्लभ और महान तप को धारण किया (आपका तप कल्याणक हुआ), आप अपनी आत्मा के ध्यान में लवलीन हो गए जो धन्य जीव इस दिन कि पूजा करते है उनके विघ्न नष्ट हो जाते है ।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

वर केवल भानु उद्योत कियो, तिहुंलोकतणों भ्रम मेट दियो
कलि फाल्गुन सप्तमि इंद्र जजें, हम पूजहिं सर्व कलंक भजें ॥
अन्वयार्थ : हे [वर] भगवन् [तणों] आपने केवलज्ञान रुपी [भानु] सूर्य को [उद्योत] प्रकट किया था । [तिहुँ] तीनों लोक के जीवों का [भ्रम] मिथ्यात्व मेट दिया था फाल्गुन [कलि] कृष्ण सप्तमि के दिन इंद्र ने आपकी पूजा करी थी । हम भी आपकी पूजा करते है जिससे सभी कर्म कलंक नष्ट हो जाए ।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सित फाल्गुन सप्तमि मुक्ति गये, गुणवंत अनंत अबाध भये
हरि आय जजे तित मोद धरे, हम पूजत ही सब पाप हरे ॥
अन्वयार्थ : भगवन आप फाल्गुन [सित] शुक्ल सप्तमि को मोक्ष पधारे, आप [गुणवंत अनंत] अनंतगुणों सहित, [अबाध] बाधा रहित हो गए । [हरि] इंद्र ने आकर अत्यंत [मोद] प्रसन्नता पूर्वक [तित] आपकी [जजें] पूजा करी थी । हम भी समस्त पापों को [हरे] हरने हेतु आपकी पूजा करते है ।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
(दोहा)
हे मृगांक अंकित चरण, तुम गुण अगम अपार ।
गणधर से नहिं पार लहिं, तौ को वरनत सार ॥
अन्वयार्थ : हे चन्द्रप्रभ भगवान् ! आपके चरणों में [मृगांक] चंद्रमा का चिन्ह अंकित है आपके अनन्तगुण [अगम] अवर्णीय [अपार] अथाह है, गणधर देव भी उनकी [पार] थाह नहीं प्राप्त कर सकते [तौ] तो [को] कौन उनकी [सार] श्रेष्ठता का [वरनत] वर्णन कर सकता है ।
पै तुम भगति मम हिये, प्रेरे अति उमगाय ।
तातैं गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥
अन्वयार्थ : [पै] फिर भी मेरे [हिये] हृदय में आपकी भक्ति मुझे [प्रेरे] प्रेरित करके अत्यंत [उमगाय] उत्साहित कर रही है इसलिए आपके गुणों का गान करता हूँ, इसमें आप ही मेरी सहायता कीजिये ।
(छंद पद्धरी)
जय चंद्र जिनेंद्र दयानिधान, भवकानन हानन दव प्रमान ।
जय गरभ जनम मंगल दिनंद, भवि-जीव विकाशन शर्म कन्द ॥१॥
अन्वयार्थ : हे चंद्रप्रभ भगवान् आपकी जय हो । आप दया के [निधान] भण्डार है, संसार रुपी [कानन] जंगल को नष्ट करने के लिए दावानल के समान है, आपका गर्भ और जन्म कल्याणक हुआ था, आपकी जय हो, [भवि] भव्यजीव रुपी कमलों के हृदय को [विकाशन] विकसित करने के लिए आप सूर्य के समान है और [शर्मकन्द] सुख को उत्पन्न करने वाले हो ।
दशलक्ष पूर्व की आयु पाय, मनवांछित सुख भोगे जिनाय ।
लखि कारण ह्वै जगतैं उदास, चिंत्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ॥२॥
अन्वयार्थ : भगवन आपने दस लाख पूर्व की आयु प्राप्त करी जिस के गृहस्थ अवस्था में मन वांछित सुखों को भोगो था । कुछ कारणवश आप संसार से उदासीन होकर, सुख के स्थानों, बारह भावनाओं का चिंतवन करने लगे ।
तित लोकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग ।
तापै तुम चढ़ि जिनचंदराय, ताछिन की शोभा को कहाय ॥३॥
अन्वयार्थ : लौकान्तिक देव अपने नियोगानुसार उनके [बोध्यो नियोग] वैराग्य की अनुमोदना के लिए [तित] वहां आये । इंद्र ने [शिविका] पालकी सजा कर रखी । चन्द्रप्रभ भगवान् ! [तापै] उस पर चढ़ कर आप, तप धारण करने के लिए जंगल की ओर बढ़े, [ताछिन] उस समय की शोभा का वर्णन करने में कौन समर्थ है ।
जिन अंग सेत सित चमर ढार, सित छत्र शीस गल गुलक हार ।
सित रतन जड़ित भूषण विचित्र, सित चन्द्र चरण चरचें पवित्र ॥४॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र भगवान् का [अंग सेत] शरीर [सित] श्वेत चंद्रमा के समान था, उन के ऊपर सफ़ेद चॅवर ढोरे जा रहे थे, सिर के ऊपर भी सफ़ेद छत्र थे, गले में [गुलक] सुंदर, श्वेत रत्नों से जड़ित हार था, भिन्न-भिन्न आभूषण भी पहने हुए थे ऐसे श्वेत पवित्र चरणों वाले चन्द्रप्रभ भगवान् की हम अर्चना / पूजा करते है ।
सित तनद्युति नाकाधीश आप, सित शिविका कांधे धरि सुचाप ।
सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित्त में चिंतत जात पर्व ॥५॥
अन्वयार्थ : आपके शरीर की कांति सफ़ेद है आप [नाकाधीश] देवताओं के स्वामी है, आपकी श्वेत [सुचाप] धनुषाकार [शिविका] पालकी को इंद्र और देव कंधे पर रख कर ले जाते है । उस जलूस में सभी सुरेश नरेश आपके यश (गुणों )का चिंतवन करते हुए जाते है ।
सित चंद्र नगर तें निकसि नाथ, सित वन में पहुचे सकल साथ ।
सित शिला शिरोमणि स्वच्छ छाँह, सित तप तित धार्यो तुम जिनाह ॥६॥
अन्वयार्थ : भगवन आप चन्द्रनगर से निकलकर वन में [सकल] सब के साथ पहुंचे । वहाँ श्वेत, स्वच्छ और [शिरोमणि] श्रेष्ठ शिला पर आप ने तप धारण किया अर्थात सारे वस्त्र, आभूषण त्याग कर आपने निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा धारण करी ।
सित पय को पारण परम सार, सित चंद्रदत्त दीनों उदार ।
सित कर में सो पय धार देत, मानो बांधत भवसिंधु सेत ॥७॥
अन्वयार्थ : आपकी [सित पय] श्वेत दूध की श्रेष्टम रसीली [पारण] पारणा उदार सेठ चन्द्रदत्त द्वारा हुई । आपके श्वेत हाथों में वे दूध की धार देते थे, ऐसा लग रहा था जैसे संसार सागर पर [सेत] पुल ही बांध रहे हो ।
मानो सुपुण्य धारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ।
फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त ॥८॥
अन्वयार्थ : आपके हाथ में दूध की धारा प्रत्यक्ष पुण्य की धारा बहती हुई लग रही थी । वहाँ पर देवताओं ने [ततच्छ] उसी क्षण [अचरज] पञ्चाशचर्य (रत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, मंदसुगंध, बयार, भिन्न-भिन्न बाजे बजना, अबोध आनंद का उच्चारण) किए । फिर आप गहन तप करने के लिए चले गए जिसके द्वारा आपने अनंत केवलज्ञान रुपी ज्योति को [जग्यो] प्राप्त किया ।
लहि समवसरन रचना महान, जा के दरसन सब पाप हान ।
जहँ तरु अशोक शोभै उतंग, सब शोक तनो चूरै प्रसंग ॥९॥
अन्वयार्थ : केवलज्ञान प्राप्त करते ही आपने समवशरण विभूति प्राप्त करी अर्थात इंद्र ने कुबेर को भेजकर महान समवशरण की रचना करवाई । जिसको देखते ही सब पाप नष्ट हो जाते है । वहाँ [उतंग] ऊँचा अशोक [तरु] वृक्ष शोभित हो रहा था जो कि समस्त शोक के प्रसंगो को [चूरै] नष्ट कर रहा था ।
सुर सुमन वृष्टि नभ तें सुहात, मनु मन्मथ तजि हथियार जात ।
बानी जिनमुख सों खिरत सार, मनु तत्त्व प्रकाशन मुकुर धार ॥१०॥
अन्वयार्थ : वहाँ, देवता [नभ] आकाश से सुगन्धित सुहावने पुष्पों की [वर्षा] वृष्टि करते है, ऐसा लगता है मानो [मन्मथ] कामदेव अपने हथियारों को छोड़ कर भाग रहा हो । भगवन के मुख से वहाँ श्रेष्ठ वाणी, दिव्यध्वनि, खिरती है जो कि मानो तत्वों के प्रकाशन के लिए साक्षत [मुकुर धार] दर्पणमय है ।
जहँ चौंसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत ।
सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिव सरवर को कमल शुक्ल ॥११॥
अन्वयार्थ : जहाँ चौसठ चँवर [अमर] देव निरंतर ढोरते है, ऐसा लगता है मानो आपके यश की [झरि] वर्षा मेघों द्वारा हो रही हो, गंध-कुटी के ऊपर सिंहासन है, जिस पर कमल है । यह कमल, मोक्षरूपी सरोवर का ही श्वेतकमल लग रहा है ।
दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करमजीत को है नगार ।
शिर छत्र फिरै त्रय श्वेत वर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण ॥१२॥
अन्वयार्थ : [जित] जहाँ मधुर सुरों में दुंदभि बज रही है, ऐसा लगा मानो कर्मों पर विजय का नगाड़ा बज रहा हो । आपके सिर के ऊपर तीन छत्र, श्वेत वर्ण के फिर रहे हैं, मानो ये तीन रत्नो (रत्नत्रय) के देने वाले और तीन प्रकार के ताप अर्थात जन्म जरा मृत्यु को हरने वाले हों ।
तन प्रभा तनो मंडल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात ।
मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सु आय ॥१३॥
अन्वयार्थ : आपके शरीर की प्रभा का जो सुहावना मंडल है उसमे भव्य जीव अपने-अपने सात-सात (तीन भूत, तीन भविष्य के और १ वर्तमान) भव देखते हैं । जैसे वे दर्पण में अपना मुख स्पष्ट देख कर आते है ।
इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान ।
ता को वरणत नहिं लहत पार, तो अंतरंग को कहै सार ॥१४॥
अन्वयार्थ : इन अनेक विभूतियों को देखकर आपकी बाह्य महिमा का वर्णन करना कठिन है फिर अंतरंग महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ।
अनअंत गुणनिजुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार ।
फिर जोग निरोध अघातिहान, सम्मेदथकी लिय मुकतिथान ॥१५॥
अन्वयार्थ : भगवान् आपने अपने अनंतगुणों सहित विहार किया है और भव्य जीवों को संसार से पार लगने का उपदेश दिया । फिर योग-निरोध अर्थात मन-वचन-काय तीनों योगो का निरोध करके, चार अघातिया कर्मों को नष्ट करके सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त कर लिया ।
'वृन्दावन' वंदत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय ।
ता तें का कहौं सु बार बार, मनवांछित कारज सार सार ॥१६॥
अन्वयार्थ : वृंदावन कवि शीश नवकार बारम्बार प्रभु की वंदना करते है - प्रभू ! आप सब जानते हो कि मेरे हृदय में क्या है, उसे मैं बार बार क्या कहूं, मेरे मन की इच्छा, [सार सार] श्रेष्ठ मोक्ष की प्राप्ति [कारज] करवा दीजिये ।
(धत्ता)
जय चंद जिनंदा, आनंदकंदा, भवभयभंजन राजैं हैं ।
रागादिक द्वंदा, हरि सब फंदा, मुकति मांहि थिति साजैं हैं ॥१७॥
अन्वयार्थ : अर्थ - जिनेन्द्र चन्द्र प्रभ आपकी जय हो । आप आनंद के समूह हैं, संसार के भय को नष्ट करने वाले हैं, रागादि द्वंदों के फंदो को हरने वाले हैं, आप मोक्ष में भली प्रकार विराजमान हैं ।
(छन्द चौबोला)
आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचंद जजें ।
ता के भव-भव के अघ भाजें, मुक्तिसार सुख ताहि सजें ॥
जम के त्रास मिटें सब ताके, सकल अमंगल दूर भजें ।
'वृन्दावन' ऐसो लखि पूजत, जा तें शिवपुरि राज रजें ॥
(इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)
अन्वयार्थ : अर्थ - जो भव्य जीव आठों द्रव्यों को लेकर चन्द्र प्रभ भगवान् की पूजा करते है उनके भव-भव के [अघ] पाप नष्ट हो जाते हैं और मुक्ति-सुख की प्राप्ति होती है । जन्म के [त्रास] दुःख मिट जाते है, समस्त अमंगल दूर हो जाते हैं । वृंदावन कवि ये देखकर, पूजा करते है जिस से मोक्ष सुख की प्राप्ति हो सके ।