तू तो समझ समझ रे भाई !निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई ॥टेक॥कर मनका लै आसन माड्यो, वाहिज लोक रिझाई ।कहा भयो बक-ध्यान धरेतैं, जो मन थिर न रहाई ॥तू तो समझ समझ रे भाई ॥१॥मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई ।क्रोध मान छल लोभ न जीत्या, कारज कौन सराई ॥तू तो समझ समझ रे भाई ॥२॥मन वच काय जोग थिर करकैं, त्यागो विषयकषाई ।'द्यानत' सुरग मोख सुखदाई, सद्गुरु सीख बताई ॥तू तो समझ समझ रे भाई ॥३॥
अर्थ : अरे भाई ! तू अब तो समझ, विवेकपूर्वक विचार कर । दिन-रात तू विषयभोग में उलझ रहा है, लिपट रहा है, तुझे धर्म का उपदेश, धर्म के वचन तनिक भी नहीं सुहाते - अच्छे नहीं लगते।
तू लोक-दिखाने के लिए, माला की मणि को हाथ में थामकर आसन लगाकर बैठता है और लोगों को रिझाता है, तू अपने आपको धर्मात्मा के रूप में दिखाता है। अरे जब तेरा मन चंचल होकर भटक रहा है तो बगुले की भांति ध्यान लगाने से क्या लाभ है?
तूने एक-एक मास के उपवास करके काया को अत्यन्त कमजोर/ शिथिल कर लिया, सुखा लिया । इस काया को कृश कर दिया लेकिन क्रोधमान-माया और लोभ, इन कषायों को नहीं जीता, वश में नहीं किया, तो तेरा कौनसा कार्य सिद्ध होगा?
मन, वचन, काय इन तीनों योगों को थिर करके, विषय वासना, कषायों को छोड़। द्यानतराय कहते हैं कि यह ही सद्गुरु का उपदेश है। इससे ही स्वर्ग व मोक्ष की, लौकिक व पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है।