धनि - धनि ते मुनि गिरी वनवासी ।मार - मार जग जार जार तें, द्वादस व्रत तप अभ्यासी ॥टेक॥कौड़ी लाल पास नहिं जाके, जिन छेदी आसापासी ।आतम - आतम पर - पर जानै, द्वादश तीन प्रकृति नासी ॥१॥जा दुःख देख दुःखी सब जग ह्वै, सो दुःख लख सुख ह्वै तासी ।जाकों सब जग सुख मानत है, सो सुख जान्यो दुःखरासी ॥२॥बाहिज भेष कहत अन्तर गुण, सत्य मधुर हित मित भासी ।'द्यानत' ते शिवपंथ पथिक हैं, पांव परत पातक जासी ॥३॥
अर्थ : अहो। वे मुनिराज जो पहाड़ों पर रहते हैं, वन में रहते हैं, धन्य हैं / जो बारह व्रत व तप की साधना करते हैं, उनका पालन कर, जगत को जलानेवाली काम की मार को नष्ट करते हैं।
जिनके पास एक कौड़ी भी नहीं है, जो सर्वांग रूप से, सब प्रकार सब ओर से आत्मा व पुद्गल के भेदज्ञान द्वारा पंद्रह प्रकार के प्रमाद को जीतते हैं, वश में करते हैं अर्थात् आत्मा को आत्मा व पुद्गल को जड़ जानकर आचरण करते हैं, उस भेदस्थिति का ध्यान करते हैं वे मुनिराज धन्य हैं ।
जिन दुःखों को देखकर सारा जगत दुखी है, वे उन्हीं दु:खों को सुख का (निमित्त) कारण मानते हैं, ऐसे पौद्गलिक सुख को, जिसे सारा जगत सुख का कारण मानता है, वे दु:ख के कारण हैं जिन्होंने यह जान लिया है वे मुनिराज धन्य हैं।
बाह्य के भेष से आंतरिक गुणों का अनुमान-ज्ञान होता है। जो सत्य, मीठे तथा हितकारी वचन बोलते हैं, ऐसे मुनिजन मोक्षमार्ग के पथिक हैं, राही हैं। जिधर से वे विचरण करते हैं उनके चरणों के प्रभाव से पापों का नाश होता है। उनके चरण वंदनीय हैं, पापनाशक हैं।