हम लागे आतमराम सों ।विनाशीक पुद्गल की छाया, को न रमै धनवान सों ॥टेक॥समता सुख घट में परगास्यो, कौन काज है काम सों ।दुविधा - भाव जालंजुली दीनौं, मेल भयो निज आतम सों ॥१॥भेदज्ञान करि निज परि देख्यौ, कौन बिलोकै चाम सों ।उरै परै की बात न भावै, लौ लाई गुणग्राम सों ॥२॥विकलपभाव रंक सब भाजे, झरि चेतन अभिराम सों .'द्यानत' आतम अनुभव करिके, छूटै भव दुःखधाम सों ॥३॥
अर्थ : अब हमारी अपनी आत्मा से लगन लग रही है । जगत में जो कुछ दृश्य है वह सब पुद्गल द्रव्य है और वह सब विनाशी स्वभाववाला, विनाश होनेवाला है, हम सर्वगुण संपन्न हैं, धनी हैं, तब क्यों पर पर्यायों में, नष्ट होनेवाले पुद्गल की छाया में, रमण करें?
हमारे अपने अन्तर में सुख है, यह तथ्य, यह सत्य प्रगट है। फिर काम से, तृष्णा से हमें क्या प्रयोजन है? जब से हमारा मिलन अपनी आत्मा से हुआ है, तब से संशय और दुविधा की स्थिति से छुटकारा हो गया है।
स्व और पर के भेदज्ञान से सबकुछ स्पष्ट हो गया है, फिर इस देह को, चाम को क्या महत्व दें? इस भेद-ज्ञान के कारण इधर-उधर की कोई बात हमें रुचिकर नहीं लगती, क्योंकि हमारी रुचि तो अपने ही गुणों में है; उनकी अनुरक्ति ही भली लगती है।
सारे विकल्प थोथे प्रतीत होते हैं, ये सब चेतन की मनोहारी झड़ी में धुल जाते हैं, हट जाते हैं। द्यानतराय कहते हैं कि जब आत्मा की अनुभूति होती है तो भव-भव के सारे दु:ख छूट जाते हैं, उसके आनन्द में विस्मृत होकर मिट जाते हैं।