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दशलक्षण-धर्म
द्यानतरायजी कृत
उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं,
सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं,
चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
अन्वयार्थ : उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव ये जीव के भाव हैं, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग ये मोक्ष प्राप्ति के उपाय हैं, उत्तम आकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य ये दस धर्म में सार है अर्थात् उत्कृष्ट हैं । ये दश धर्म चारों गतियों के दुःखों से निकालकर मोक्ष सुख को करने वाले हैं ।
हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हिमवन पर्वत से निकलने वाली धारा के जल (गंगा नदी का जल) मुनिराजों के मन के समान निर्मल शीतल और सुगंधित जल से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की सदा पूजा करता हूँ ।
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : दशो दिशाओं को सुगंधित करने वाले चन्दन और केशर को घिसकर संसार की ताप को नष्ट करने के लिए दश लक्षण धर्म की पूजा करता हूं ।
अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : मलरहित अखण्ड, (जो टूटे हुए न हो) उत्कृष्ट चन्द्रमा के समान श्वेत उज्जवल चावलों से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की हमेशा पूजा करता हूँ ।
फूल अनेक प्रकार, महकें ऊरध-लोकलों
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के पुष्पों से जिनकी सुगंधी ऊर्ध्व लोक तक फैल रही है । भव की ताप को नष्ट करने के लिए 'दश लक्षण' धर्म की पूजा करता हूँ ।
नेवज विविध निहार, उत्तम षट्-रस-संजुगत
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के उत्कृष्ट छहों रसों से युक्त नैवेद्य से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।
बाति कपूर सुधार, दीपक-ज्योति सुहावनी
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : कपूर की बत्ती बनाकर सुन्दर लगने वाले दीपक को धारण कर भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।
अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अगर आदि से धूप को तैयार कर उसकी सुगंधि को सर्व दिशाओं मे फैलाकर भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।
फल की जाति अपार, घ्रान-नयन-मन-मोहने
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के नासिका को, नेत्रो को और मन को मोहित करने वाले आर्थात् अच्छे लगने वाले फलों से भव की ताप नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूँ ।
आठों दरब सँवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसौं
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : जल चन्दन आदि आठों द्रव्यों को सजाकर अत्यन्त उल्साह पूर्वक भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की पूजा करता हूं ।

उत्तम क्षमा
पीड़ैं दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करैं
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ॥
अन्वयार्थ : बहुत दुर्जन लोग दुख देवें, बांधकर अनेक प्रकार से मारपीट करे । यातनायें दे वहाँ हे पवित्र आत्मा क्रोध को न करके विवेक् पूर्वक उत्तम क्षमा को धारण कीजिए ।
उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस, पर-भव सुखदाई
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो ॥
कहि है अयानो वस्तु छीनै, बाँध मार बहुविधि करै
घर तैं निकारै तन विदारै, वैर जो न तहाँ धरै ॥
ते करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा
अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : हे भाई उत्तमक्षमा को ग्रहण करो यह क्षमा इस भव में यश और अगले भव में सुख को देने वाली है, कोई अज्ञानी गुणों को अवगुण रूप भी कहता है गालियाँ (अपशब्द) भी देता है तो भी मन में खेद (दुःख) नहीं करना चाहिए । ऐसा वह अज्ञानी अपशब्द कहता हुआ हमारी कोई वस्तु छीन लेवे, बांध देवे, अनेक प्रकार से मारे, घर मे निकाल देवे, शरीर का छेदन करे (विदारण करे) तब भी वहां उससे बैर भाव धारण नहीं करना चाहिए । किन्तु चिन्तन करना चाहिए कि पूर्व भवों में मैंने जो पाप कर्मों का संचय किया या जो पाप कर्म किये हे जीव अब उन्हें क्यों नहीं सहन करोगे (भोगोगे) । अत्यन्त भीषण क्रोध रूपी अग्नि को हे जीव समता रूपी अत्यन्त शीतल जल से बुझाओ । अर्थात् क्रोध के समय समता धाराण करो ।

उत्तम मार्दव
मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥
अन्वयार्थ : मान महा विष के समान है यह मान (नीच गति) संसार में नरक गति को करने वाला है | कोमलता (मृदुता) रूपी अनुपम अमृत को ग्रहण करने वाले जीव हमेशा सुख प्राप्त करते हैं ।
मान करने से नीच गोत्र का आस्रव करते हैं और संसार में नीच जातियों में जन्म लेते हैं ।
उत्तम मार्दव गुन मन-माना, मान करन को कौन ठिकाना
बस्यो निगोद माहिं तैं आया, दमरी रूँकन भाग बिकाया ॥
रूँकन बिकाया भाग वशतैं, देव इक-इन्द्री भया
उत्तम मुआ चाण्डाल हूवा, भूप कीड़ों में गया ॥
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जल-बुदबुदा
करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम मार्दव गुण मन को अच्छा लगने वाला है, मान करने का क्या आधार है क्योंकि अनंत: काल से निगोद में रहता था वहाँ से आकर स्थावर में वनस्थति काय का जीव हुआ कभी दमरी (सबसे छोटी मुद्रा) के भाव बिक गया कभी रुकन अर्थात् बिना मूल्य के ही बिक गया भाग्य उदय से यह जीव देव हुआ और देव पर्याय से आकर एकेन्द्री हो गया, उत्तम पर्याय से चांडाल हुआ, राजा भी, कीड़ों में जाकर उत्पन्न हो गया हे आत्मा, क्या जीवन, युवावस्था और धन का घमंड करता है । ये सब जल के बुलबुले के समान क्षणभर में नष्ट होने वाले है । जिनमें बहुत गुण है अर्थात् गुणवान है जिनकी बड़ी आयु है ऐसे माता-पिता आदि की विनय करना चाहिए जिससे ज्ञान की प्राप्ति होती है ।

उत्तम आर्जव
कपट न कीजै कोय, चोरन के पुर ना बसै
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु-सम्पदा ॥
अन्वयार्थ : छल कपट नहीं करना चाहिए धन सम्पत्ति चोरों के यहाँ नहीं होती वे हमेशा निर्धन ही होते है (इसीलिये चोरों के शहर नहीं बसते हैं) किन्तु जिनका स्वभाव सरल होता है उनके यहाँ बहुत धन सम्पदा होती है ।
उत्तम आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी
मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये ॥
करिये सरल तिहुँ जोग अपने देख निरमल आरसी
मुख करै जैसा लखै तैसा, कपट-प्रीति अँगार-सी ॥
नहिं लहै लक्ष्मी अधिक छल करि, करम-बन्ध विशेषता
भय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तम-आर्जवधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम आर्जव सरल स्वभाव को कहते हैं । रंचमात्र भी दगा दुख को देने वाला है, जो विचार मन में हो वही वचन में रहना और जो वचन से कहा जाय वही काय से किया जाना चाहिए । इस प्रकार से तीनों योगों को सरल करना चाहिए जैसे निर्मल स्वच्छ दर्पण में जैसा अपना मुँह करोगे वैसा ही दिखेगा । छल कपट की प्रीति अंगारों से प्रीति करने के समान है (जैसे अंगारों में ऊपर राख दिखती है और अन्दर अग्नि दहकती रहती है) । अधिक छल करके कोई भी धन सम्पदा प्राप्त नहीं कर सकता बल्कि अधिक कर्म बंध करता है उस कर्मबंध का ध्यान नहीं करता और छल करता रहता है जैसे - बिल्ली आख बंद करके दूध पीते समय भय का त्याग करती है और पीछे मार पड़ेगी ध्यान नही रखती उसी प्रकार छल करने वाला कर्म बंध का ध्यान नहीं करते हुए छल करता रहता है ।

उत्तम शौच
धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देह सों
शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसार में ॥
अन्वयार्थ : हृदय में संतोष धारण कर शरीर से तपस्या करना चाहिए । दोष रहित शौच धर्म ही संसार में सबसे बड़ा धर्म है ।
उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना
आशा-फांस महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥
प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतैं
नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावतैं ॥
ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन-विधि घट शुचि कहै
बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधू लहै ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम शौच धर्म सर्व जगत में विख्यात है, यह लोभ कषाय के अभाव में होता है । लोभ सर्व पापों को (उत्पन्न) करने वाला है । आशा-इच्छा रूपी पाश भयानक दुःखों को देने वाली है अत: संतोष को धारण करने वाले जीव सुख को प्राप्त करते हैं । इस जीव की शुचिता (पवित्रता) शील, जप, तप, ज्ञान, ध्यान के प्रभाव से होती है हमेशा गंगा, यमुना आदि नदियों में एवं समुद्र में भी स्नान करने से शुचिता अर्थात् पवित्रता नहीं होती क्योकि इस शरीर का स्वभाव ही अपवित्र है । यह ऊपर तो अत्यन्त निर्मल दिखता है परन्तु इसके अन्दर मल भरा हुआ है । ऐसे शरीर को किस प्रकार पवित्र कहा जा सकता है । जिनका शरीर तो मलिन है पर जो गुणों के भडार है ऐसे महाव्रती साधु ही इस शौच गुण को प्राप्त करते है ।

उत्तम सत्य
कठिन वचन मति बोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज
साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ॥
अन्वयार्थ : कठोर वचन, पर निंदा, और झूठ वचनों का त्याग करना सत्य धर्म है । सत्य रूपी जवाहर रत्न का उपयोग करना चाहिए क्योकि सत्यवादी प्राणी संसार में सुखी रहते हैं ।
उत्तम सत्य-बरत पालीजै, पर-विश्वासघात नहिं कीजै
साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो ॥
पेखो तिहायत पुरुष साँचे को दरब सब दीजिये
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये ॥
ऊँचे सिंहासन बैठि वसु नृप, धरम का भूपति भया
वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम सत्य धर्म पालन करना चाहिए, दूसरों का विश्वासघात नहीं करना चाहिए । सत्यवादी और झूठे मनुष्यों को देखो, झूठ बोलने वाले पुत्र पर भी विश्वास नही किया जाता अर्थात् झूठे व्यक्तियो पर कोई विश्वास नही करता । (हमने अभी तक सच्चे और झूठे मनुष्य ही देखे है लोकन अपने आत्मा के पवित्र स्वभाव के पास जाकर नहीं देखा यह निश्चय सत्य धर्म का लक्षण है । साचे झूठे मनुष्यों को तो देखता है किन्तु अपने अन्तर में स्थित शुद्ध आत्म स्वरूप को नहीं देखता जो आत्मा का सत् स्वरूप है )

निस्वार्थ सत्यवादी का सभी विश्वास करते हैं और अमानत स्वरूप धन भी देते हैं । मुनिराजों की और श्रावकों की प्रतिष्ठा (इज्जत) सत्य गुण से (सत्य धर्म से) ही है । राजा बसु ऊँचे सिंहासन पर बैठकर न्याय करता था झूठ बोलने के कारण से नरक में गया और सत्य को बोलने वाला नारद स्वर्ग गया ।

उत्तम संयम
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो
संजम-रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ॥
अन्वयार्थ : छह काय के जीवों की रक्षा करना और पांच इन्द्रियों और मन को वश में करना उत्तम संयम धर्म है । संयम रूपी रत्न को संभाल कर रखना चाहिए क्योंकि विषय वासना रूपी बहुत चोर घूम रहे हैं ।
उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजैं अघ तेरे
सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाँहीं ॥
ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ॥
जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में
इक घरी मत विसरो करो नित, आयु जम-मुख बीच में ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

अन्वयार्थ : उत्तम संयम धर्म को हे मन धारण करो इसे धारण करने से अनेक भवों के पाप नष्ट हो जाते हैं । यह संयम स्वर्ग, नरक और पशु (तिर्यंच) गति में नहीं है । यह संयम आलस का हरण करने वाला और सुख को करने वाला है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये स्थावर और त्रस इन छह काय के जीवों पर दयाभाव धारण कर स्पर्शन, रसना, घान, चक्षु कान और मन को वश करना संयम धर्म है । इस संयम के बिना तीर्थकर भी मोक्ष को प्राप्त नही हुए और जिसके नहीं धारण करने से ही यह आत्मा संसार रूपी कीचड़ में फंसा रहता है । हमें इस संयम को एक क्षण को भी नही भूलना चाहिए हम जम अर्थात् मृत्यु के मुँह में आ रहे हैं ।

उत्तम तप
तप चाहैं सुरराय, करम-शिखर को वज्र है
द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकतिसम ॥
अन्वयार्थ : उत्तम तप को देवो के राजा इन्द्र भी चाहते हैं | यह तप कर्म रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए वज्र के समान है । यह सुख देने वाला तप बारह प्रकार का है । इन तपों को अपनी शक्ति अनुसार क्यो धारण नही करते हो ?
उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना
बस्यो अनादि निगोद मँझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ॥
धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता
श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ॥
अति महा दुरलभ त्याग विषय-कषाय जो तप आदरैं
नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरैं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम तप धर्म का सब ग्रन्थों मे वर्णन मिलता है । कर्म रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए यह वज्र के समान है । अनादिकाल से यह जीव निगोद मे रह रहा है । वहाँ से निकलकर पृथ्वी आदि स्थावर हुआ स्थावर के बाद त्रस पयाय में विकलेन्द्री हुआ और फिर पशुओं के शरीर को धारण किया अब दुर्लभ यह मनुष्य पर्याय प्राप्त कीया है । उसमे भी उच्चकुल, पूर्ण आयु, निरोग शरीर, जिनवाणी का संयोग, तत्त्व ज्ञान, आत्म चिन्तन मे उपयोग अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त किया है जो व्यक्ति अत्यन्त महा दुर्लभ विषय और कषाय का त्याग कर तप को आदरपूर्वक ग्रहण करते है वे मनुष्यभव रूपी स्वर्ण गृह पर रत्नमयी कलशा चढाते है अर्थात् नर जन्म धन्य करते है ।

उत्तम त्याग
दान चार परकार, चार संघ को दीजिए
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए ॥
अन्वयार्थ : दान चार प्रकार के होते हैं । चारों दान चार संघ अर्थात् मुनि , आर्यिका, श्रावक, श्राविका को देना चाहिए । धन, सम्पत्ति, वैभव बिजली की चमक की तरह है अत: मनुष्य भव का लाभ लेना चाहिए ।
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा
निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ॥
दोनों सँभारै कूप-जल सम, दरब घर में परिनया
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ॥
धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं बोध को ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम त्याग समस्त संसार मे श्रेष्ठ है । ये दान औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान के भेद से चार प्रकार का है । यह तो व्यवहार त्याग है । निश्चय त्याग, राग द्वेष के त्याग को कहते हैं । ज्ञानीजन दोनों दान (निश्चय और व्यवहार) करते हैं । कुए का पानी यदि खर्च न हो तो खराब हो जाता है और यदि खर्च होता रहे तो खराब नही होता । उसी प्रकार घर में धन सम्पत्ति वैभव हो तो दान करना चाहिए जो श्रेष्ठ है नही तो नष्ट हो जायेगा लेकिन रहने वाला नही है । धन्य है वे साधु जो शास्त्र दान, अभय दान के देने वाले है और राग द्वेष का त्याग करने वाले है । बिना दान के श्रावक और साधु दोनों ही सम्यक् ज्ञान को प्राप्त नहीं होते ।

उत्तम आकिंचन्य
परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करैं मुनिराजजी
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥
अन्वयार्थ : परिग्रह चौबीस भेद, यह व्यवहार आकिंचन्य धर्म है और तिसना भाव उछेद, यह निश्चय आकिंचन्य धर्म है ।
परिग्रह के २४ भेद (अंतरंग १४ और बाह्य १०)

अंतरंग - मिथ्यात्व + चार कषाय + नौ कषाय = १४

बाह्य - खेत + मकान + रुपया + सोना + गोधन आदि + अनाज + दासी + दास + कपड़े + बर्तन व मसाले आदि = १०
परिग्रह के चौबीस भेद है उनका त्याग (व्यवहार आकिंचन्य) मुनिराज करते हैं और तृष्णा भाव को नष्ट करते है (निश्चय आकिंचन्य) । श्रावक को भी धीरे-धीरे दोनो प्रकार के परिग्रहों को घटाना चाहिए ।
उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो
फाँस तनक-सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुख भालै ॥
भालै न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरैं
धनि नगन पर तन-नगन ठाड़े, सुर-असुर पायनि परैं ॥
घर माहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार सौं
बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर-उपगार सौं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमाकिंचन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम आकिंचन्य श्रेष्ठ गुण है । परिग्रह चिन्ता-दुख के ही पर्याय है । छोटी सी फ़ांस भी पूरे शरीर को दुखी कर देती है उसी प्रकार लंगोटी का आवरण या लंगोटी की चाह दुख को देने वाली होती है । यह मनुष्य, महाव्रत अर्थात निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की मुद्रा को धारण किये बिना समता और सुख को प्राप्त नही कर सकता । वे मुनिराज धन्य हैं जो पर्वतो पर नग्न खडे रहकर तप करते है उनके चरणो की पूजा सुर-असुर आदि सभी करते हैं । घर मे रहते हुए भी जो तृष्णा को घटाते हैं, तथा जिनको संसार में रूचि नही है, ऐसे जीवों का धन, यद्यपि धन बुरा ही होता है, परोपकार में लगने के कारण फिर भी अच्छा कहा गया है ।

उत्तम ब्रह्मचर्य
शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ॥
अन्वयार्थ : धन्य है वे मुनिराज जो अन्तर से नग्न है (अंतरंग परिग्रह से रहित) शरीर से भी नग्न (बाह्य परिग्रह से रहित) खडे रहते है ।
शील की रक्षक नौ बाढे - १ स्त्री-राग वर्धक कथा न सुनना, २ स्त्रियों के मनोहर अगों को न देखना, ३ पहले भोगे हुए भोगों को याद न करना, ४ गरिष्ठ व स्वादिष्ट भोजन न करना, ५ अपने शरीर को श्रंगारित न करना, ६ स्त्रियों की शैया-आसन पर न बैठना, ७ स्त्रियों से घुल-मिल कर बातें न करना, ८ भर-पेट भोजन न करना, १ कामोत्तेचक नृत्य , फिल्म, टीवी न देखना ।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ
सहैं बान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-बान लखि कूरे ॥
कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करैं
बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचैं भरैं ॥
संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा
’द्यानत' धरम दश पैड़ि चढ़ि कै, शिव-महल में पग धरा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : शील को नौ बाडें लगाकर सुरक्षित रखना चाहिए (व्यवहार ब्रह्मचर्य) और अन्तर में ब्रह्म अर्थात् आत्म चिन्तन करना चाहिए (निश्य बह्मचर्य) शील की नौ बाड़ों की एवं आत्म चिन्तन डन दोनों की प्राप्ति के अभिलाषी बनके मनुष्य जन्म सफल करना चाहिए ।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन मे धारण का स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री के रूप में देखना चहिये । यह जीव रणभूमि में शूरवीरों द्वारा की जाने वाली बाणों की वर्षा को सहन कर लेता है । परन्तु स्त्रीयों के क्रूर नेत्र रूपी बाण को सहन नहीं कर पाता ऐसा काम रोग से पीड़ित स्त्री के अपवित्र शरीर में रति (प्रेम) करता है जिस प्रकार श्मशान में मरे हुए सडे हुए शरीर में कौआ प्रेम करके चौंचों से मृत शरीर को खाता है । संसार में स्त्री विष बेल के समान है । इसलिए सभी मुनिराजों ने स्त्रियों का त्याग कर दिया ।
श्री द्यानत राय जी कहते हैं कि ये दस धर्म रूपी सीढ़ियां चढ़कर मोक्ष रूपी महल में प्रवेश हो जाता है ।

जयमाला
दश लच्छन वन्दौं सदा, मनवांछित फलदाय
कहों आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥
अन्वयार्थ : दशलक्षण धर्म की सदा वदना करता हूँ । इससे मन के अनुकूल फल की प्राप्ति होती है दशलक्षण धर्म की आगमानुकूल आरती कहता हूं हे भगवान मेरी सहायता कीजिए |
उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहिर शत्रु न कोई
उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेद ज्ञान सब भासे॥
उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागि सुगति उपजावे
उत्तम शौच लोभ-परिहारी, सन्तोषी गुण-रतन भण्डारी ॥
उत्तम सत्य-वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले
उत्तम संजम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करै, ले साता ॥
उत्तम तप निरवांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले
उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ॥
उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि दशा विसतारे
उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकति-फल पावे ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : उत्तम क्षमा जिनके मन मे होती है उनके मन मे राग द्वेष आदि विकारभाव अंतर और बाह्य मे भी कोई शत्रु नही रहता । उत्तम मार्दव धर्म, विनयगुण का प्रकाशन करके अनेक प्रकार से भेद-विज्ञान करवाता है । उत्तम आर्जव धर्म छलकपट को नाश करता है एवं खोटी गतियों से छुडाकर श्रेष्ठ गतियों मे उत्पन्न करवाता है । जो उत्तम सत्य वचन मुख से बोलते है वे जीव संसार में परिभ्रमण नही करते । उत्तम शौच धर्म लोभ कषाय का नाश करता है, जिनके संतोष है वे गुणों के भंडार होते है । उत्तम संयम धर्म को जो ज्ञानी जन धारण करते है वे साता को प्राप्त करके मनुष्य भव को सफल करते है । इच्छा रहित उत्तम तप धर्म का पालन करने से मनुष्यों के कर्म रूपी शत्रुओं का नाश हो जाता है । जो व्यक्ति उत्तम त्याग करते है वे भोग भूमि और स्वर्ग के सुख भोग कर मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं । जो उत्तम आकिंचन्य धर्म को धारण करते है वे परम समाधि को प्राप्त होते है । उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म को जो मन में धारण करते है वे मनुष्य देव गति को प्राप्त कर मोक्षफल प्राप्त करते हैं ।

द्यानत राय जी - यह दस लक्षण धर्म कर्म की निर्जरा कर भव रूपी पिंजरा को नष्ट कर अजर-अमर पद को प्राप्त कर सुख की राशि अर्थात् अनंत सुख की प्राप्ति कराते हैं ।
करै करम की निरजरा, भव पींजरा विनाशि
अजर अमर पद को लहैं, 'द्यानत' सुख की राशि ॥
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)