मेरे कब ह्वै वा दिन की सुघरी ॥टेक॥तन विन वसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टिधरी ॥पुण्यपाप परसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरीतज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिम मेघझरी ॥मेरे कब ह्वै वा दिन की सुघरी ॥१॥कब थिरजोग धरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरीध्यान-कमान तान अनुभव-शर, छेदों किहि दिन मोह अरी ॥मेरे कब ह्वै वा दिन की सुघरी ॥२॥कब तृनकंचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी'दौलत' सत गुरुचरन सेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ॥मेरे कब ह्वै वा दिन की सुघरी ॥३॥
अर्थ : मेरे कब उस दिन को सुघड़ी (शुभमुहूर्त) आवे, जब मैं नग्न दिगम्बर होकर (सब वस्त्र छोड़कर) बिना किसी भोजन के वन में रहूँ (नासादृष्टि लगाकर साधना करूँ)।
जड़ से, पुण्य-पाप से कब विरक्त होऊँ और अपनी निधि को, आत्मा को जिसे दीर्घकाल से भुला रखा है उसे जानूँ अर्थात् उससे परिचय करूँ। सब प्रकार की उपाधि को छोड़कर सहज समाधि में लीन होके और गर्मी, सर्दी व वर्षा की झड़ी की तीव्रता को सहन करूँ।
कब ऐसे योग-साधना में मैं स्थिर होऊँ कि शरीर की (पाषाण कौ-सी) निश्चलता को देखकर भोले हरिण अपनी देह की खुजली के निवारण के लिए पाषाण समझकर अपना शरीर खुजाने लगें। ध्यान की कमान तानकर, अनुभवरूपी बाण से मोह-शत्रु का छेदन करूँ।
कब ऐसी समझ होवे कि तिनका और स्वर्ण-मणिजड़ित महल व पर्वत की कंदराओं को समान, एक-सा समझूँ। दौलतराम कहते हैं कि सत्गुरु के चरणों की सेवा करो, भक्ति करो जिससे यह आशा पूरी हो जावे।