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जबतैं आनंदजननि दृष्टि
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तर्ज : निरखत जिन-चन्द्र-वदन

जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ।
तबतैं संशय विमोह भरमता विलाई ॥टेक॥

मैं हूँ चितचिह्न भिन्न, परतें पर जड़स्वरूप,
दोउनकी एकतासु, जानी दुखदाई ॥
जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ॥१॥

रागादिक बंधहेत, बंधन बहु विपति देत,
संवर हित जान तासु, हेत ज्ञानताई ॥
जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ॥२॥

सब सुखमय शिव है तसु, कारन विधिझारन इमि,
तत्त्व की विचारन जिन-वानि सुधिकराई ॥
जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ॥३॥

विषयचाहज्वालतैं, दह्यो अनंतकालतैं,
सुधांबुस्यात्पदांकगाह तें प्रशांति आई ॥
जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ॥४॥

या विन जगजाल में, न शरन तीनकाल में,
सम्हाल चित भजो सदीव, 'दौल' यह सुहाई ॥
जबतैं आनंदजननि दृष्टि परी माई ॥५॥



अर्थ : जब से ये आनन्ददाता (आनन्द को जन्म देनेवाले) विचार आए हैं, सोचने की स्पष्ट दिशा बनी है तब से संशय, विमोह और विभ्रम मिटने लगे हैं ।

मैं चैतन्य हूँ, 'पर' से अर्थात् जड़-पुद्गल से भिन्न हूँ। किन्तु अब तक मैं दोनों को एक ही मानता रहा। अब जाना कि दु:ख का कारण यही है । राग आदि बंध के कारण हैं, उनके कारण हुए कर्मबंधन अत्यन्त विपत्तियों के देनेवाले हैं। उनको रोकने के लिए संवर का होना ही एकमात्र हित साधन है, इसका भान, इसका बोध ही ज्ञान है।

यह आत्मा आनन्द का भंडार है, आनन्दमय है । तत्वों के विचार से कर्मों की निर्जरा होती है। ऐसा बोध-स्मरण जिनवाणी के पढ़ने, सुनने, मनन करने से होता है।

विषय-भोगों की कामना-लालसा की आग में अनंतकाल से मैं जल रहा हूँ। वस्तु के समस्त पहलुओं को देखने-समझने की स्याद्वाद प्रणाली से वस्तुस्वरूप समझ में आने लगा और शान्ति का अनुभव हुआ; व्यग्रता-आकुलता मिटने लगी।

इस संसार के व्यूहजाल से छूटने के लिए, इसके सिवा तीनकाल में भी कोई शरण नहीं है। प्रमाद छोड़कर इसका यत्नपूर्वक सदैव मनन-अध्ययन करो। दौलतराम कहते हैं - ऐसा करना ही सुहावना लगता है, भला भाता है।