दुविधा कब जैहै या मन की ॥टेक॥कब निजनाथ निरंजन सुमिरों, तज सेवा जन-जन की ॥१॥कब रुचि सौ पीवौं दृग चातक, बूंद अखयपद घन की ।कब शुभ ध्यान धरौ समता गहि, करूं न ममता तन की ॥दुविधा कब जैहै या मन की ॥२॥कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दृढ़ता सुगुरु वचन की ।कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धन की ॥दुविधा कब जैहै या मन की ॥३॥कब घर छाँडि होहूं एकाकी, लिये लालसा वन की ।ऐसी दशा होय कब मेरी, हौं बलि-बलि वा छिन की ॥दुविधा कब जैहै या मन की ॥४॥
अर्थ : न मालूम, हमारे मन की यह दुविधा कब दूर होगी ? वह अवसर कब आवेगा, जब में इन पामर मनुष्यों की गुलामी से छुटकारा प्राप्त करूँगा और अपने निर्विकार आत्माराम की अलख जगाऊँगा ?
न जाने कब हमारे नेत्र-चातक* घनीभूत अक्षय पद की सरस बिन्दुओं का रुचि के साथ पान करेंगे - वह समय कब आवेगा जब हमारा मन निराकुल मोक्ष-पद की प्राप्ति के लिए ही अहनिश चिन्ताशील रहेगा और वह शुभ घड़ी, न जाने जीवन में कब आवेगी जब हमारे परिणामों में समता भाव की जागृति होगी और हमारा चिन्तन आत्म-विशुद्धि की ओर अग्रसर होगा । इसके अतिरिक्त वह अवस्था भी प्राप्त होगी जब हमारे मन में अपने शरीर के प्रति भी ममत्व-बुद्धि शेष न रहेगी ? न जानें, हमारे मन की यह दुविधा कब दूर होगी ?
न जाने, आत्मा के अन्दर सुगुरु के वचनों के प्रति एकरस दृढ़ता कब जागृत होगी और न जाने वह समय कब आवेगा जब आत्मा के भीतर वास्तविक भेद-विज्ञान की उज्ज्वल ज्योति जलेगी और वास्तविक सुख की प्राप्ति होगी । इसके सिवाय वह क्षण भी, न जाने, कब आवेगा जब धन के प्रति लेश भी ममत्व-भाव न रहेगा ? न मालूम हमारे मन की यह दुविधा कब दूर होगी ?
न मालूम, जीवन में वह क्षण कब आवेगा जब मैं घर छोड़कर बिलकुल एकाकी होकर वनवासी बनूंगा । पता नहीं यह सुयोग मुझे कब मिलेगा । मैं उसकी चिर प्रतीक्षा में हूँ। उस सौभाग्यपूर्ण क्षण पर मैं सौ बार निछावर हूँ ।
*चातक पक्षी स्वाती नक्षत्र में बरसने वाले जल को बिना पृथ्वी में गिरे ही ग्रहण करता है, इसलिए उसकी प्रतीक्षा में आसमान की ओर टकटकी लगाए रहता है। वह प्यासा रह जाता है। लेकिन ताल तलैया का जल ग्रहण नहीं करता।