जैसे रैनि वियोगज चकई तौ बिलपै निस सारी । आसि बांधि अपनी जिय राखै प्रात मिलयो या प्यारी । मैं निरास निरधार निरमोही जिउ किम दुख्यारी ॥ अरज करै राजुल नारी ॥२॥
अब ही भोग जोग हो बालम देखौ चित्त विचारी । आगै रिषभ देव भी ब्याही कच्छ-सुकच्छ कुमारी । सोही पंथ गहो पीया पाछै होज्यो संजम धारी ॥ अरज करै राजुल नारी ॥३॥
जैसे बिरहै नदी मैं व्याकुल उग्रसैन की बारी । धनि धनि समुदबिजै के नंदन बूढत पार उतारी । सो ही किरपा करौ हम उपरि 'भूधर' सरण तिहारी ॥ अरज करै राजुल नारी ॥४॥