वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥टेक॥जिनसों मिलना फेरि बिछुरना, तिनसों कैसी यारी ।जिन कामों में दुख पावै है, तिनसों प्रीति करारी ॥वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥१॥बाहिर चतुर मूढ़ता घर में, लाज सबै परिहारी ।ठगसों नेह वैर साधुनिसों, ये बातैं विसतारी ॥२॥वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥२॥सिंह दाढ़ भीतर सुख मानै, अक्कल सबै बिसारी ।जा तरु आग लगी चारौं दिश, वैठि रह्यो तिहँ डारी ॥३॥वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥३॥हाड़ मांस लोहू की थैली, तामें चेतनधारी ।'द्यानत' तीनलोक को ठाकुर, क्यों हो रह्यो भिखारी ॥४॥वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥४॥
अर्थ : हे प्राणी ! देख, कैसे-कैसे अज्ञानी, बिल्कुल अनाड़ी जीव हैं ! जिनमें सदा मिलना और बिछुड़ना ही होता रहता है, ऐसे पुद्गल से प्रीति, प्रेम, मित्रता कैसे होगी! अरे, फिर भी जिन कार्यों से स्पष्टतः दु:ख मिलता है, उनसे यह प्रीति करता है।
बाहर दुनियादारी के काम में चतुराई दिखाता है और अपने ही घर में यह अनजान - अज्ञानी हो रहा है अर्थात् पुद्गल के साथ चतुराई की बातें करता है, पर अपने ही आत्मवैभव के बारे में सर्वथा अज्ञानी है, अनजाना हो रहा है।
जो बाह्य आकर्षण उसे ठग रहे हैं, भुलावा भ्रम दे रहे हैं उनसे वह प्रेम करता है और जो साधुवृत्ति उसके लिए कल्याणकारी है, उसे वह शत्रुवत समझता है। ये सारी बातें फैला रखी हैं।
संसारी सुखरूपी सिंह की दाढ़ में बैठकर वह निश्चित होकर अपने को सुखी मान रहा है, कैसी मूर्खता की बात है ! अरे वहाँ एक पल की भी सुरक्षा नहीं है । जिस पेड़ के चारों ओर आग लगी है वह उसी पेड़ की डाल पर बैठा हुआ है ।
यह देह रक्त, हाड़, मांस की थैली है, इसी में यह आत्मा ठहरा हुआ है । द्यानतराय कहते हैं कि अरे तू तो तीन-लोक का स्वामी है, तू क्यों अज्ञानी होकर भिखारी हो रहा है, क्यों तु दुसरे पर आश्रित हो रहा है?