भाई! अब मैं ऐसा जाना ...पुद्गल दरब अचेत भिन्न है, मेरा चेतन वाना ॥टेक॥कलप अनन्त सहत दुख बीते, दुख कौं सुख कर माना ।सुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मनतैं आना ॥भाई! अब मैं ऐसा जाना ...॥१॥जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशि की ठौर बिहाना ।भूल मिटी निजपद पहिचाना, परमानन्द-निधाना ॥भाई! अब मैं ऐसा जाना ...॥२॥गूंगे का गुड़ खाँय कहैं किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना ।'द्यानत' जिन देख्या ते जानें, मेंढक हंसपखाणा ॥भाई! अब मैं ऐसा जाना ...॥३॥
अर्थ : अरे भाई ! मैंने अब यह जान लिया है कि पुद्गला चेतनारहित है, अचेतन है । मेरा आत्मा चेतन है । आत्मा व पुद्गल दोनों भिन्न हैं ।
अनन्त कल्प दुःख सहन करते हुए बीत गए। मैंने दुःख को ही सुख मान लिया । सुख और दुःख दोनों कर्मों की अवस्थाएँ हैं । मैं तो कर्मों से अन्य हूँ, अलग हूँ, भिन्न हूँ ।
जहाँ सुबह (भोर) थी वहाँ रात हो गई । रात के बाद फिर सुबह होगी, इस प्रकार सुख-दुख, पुण्य-पाप का क्रम चलता रहता है । पर ये भी अलग-अलग, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, ये तो कर्म ही हैं । जब यह भूल मिट गई, श्री जिनेन्द्र के चरण - कमलों का आश्रय लिया और निज को पहचाना तब परमानन्द की प्राप्ति हुई ।
गूंगा यद्यपि गुड़ खाकर उसका स्वाद जानता है, पर उसे व्यक्त करने में, कहने में असमर्थ होता है । उसी भाँति मैंने चेतनरूप को जाना, पहचाना, अनुभव किया पर उस अनुभूति को वचनों द्वारा कहा नहीं जा सकता । द्यानतरायजी कहते हैं कि लोक में प्रसिद्ध उक्ति है कि हंस और मेंढक दोनों जल में ही रहते हैं पर दोनों में बहुत अन्तर है, भेद है, इनका भेद (मेंढक और हंस) जिसने देखा है, अनुभव किया है, वह ही वास्तविकता जानता है। उसी प्रकार जिसने आत्मा व जड़ के भेद को जान लिया, अनुभव कर लिया वह ही आत्मा को जानता है ।