मोहि कब ऐसा दिन आय हैसकल विभाव अभाव होंहिंगे, विकलपता मिट जाय है ॥टेक॥यह परमातम यह मम आतम, भेद-बुद्धि न रहाय है ।ओरनिकी का बात चलावै, भेद-विज्ञान पलाय है ॥मोहि कब ऐसा दिन आय है ॥१॥जानैं आप आपमें आपा, सो व्यवहार विलाय है ।नय-परमान-निक्षेपन-माहीं, एक न औसर पाय है ॥मोहि कब ऐसा दिन आय है ॥२॥दरसन ज्ञान चरनके विकलप, कहो कहाँ ठहराय है ।'द्यानत' चेतन चेतन ह्वै है, पुदगल पुदगल थाय है ॥मोहि कब ऐसा दिन आय है ॥३॥
अर्थ : हे भगवन् ! मेरा ऐसा दिन कब आयेगा जब मेरे सारे विभाव समाप्त होकर मेरे सारे विकल्प मिट जायेंगे - समाप्त हो जायेंगे ।
मेरा यह आत्मा ही परमात्मा बन जाये । इसमें कोई भेद या अन्तर न रह जावे । पर अन्य क्या बात करें जब तनिक भी भेद-ज्ञान नहीं है।
एकमात्र मैं स्वयं अपने आपको सबसे अलग जानूँ। वहाँ ज्ञाता-ज्ञेय का भेद व्यवहार भी विलीन हो जाए अर्थात् ज्ञानरूप अनुभूति ही शेष रह जाए। नय, प्रमाण, निक्षेप के भेद का एक अवसर भी शेष न रहे । ऐसा दिन कब आयेगा?
मुझे दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी विकल्प भी न रहे अर्थात् तीनों रत्नत्रय एकरूप ही हो जाएँ। द्यानतराय कहते हैं चेतन चेतन होकर रहे और पुदगलपुदगल रूप ही रहे । वह दिन कब आयेगा !