अष्टापद कैलाश शिखर पर्वत को बन्दु बारम्बार । ऋषभदेव निर्वाण धरा की गूंज रही है जय-जयकार ॥ बाली महाबालि मुनि आदिक मोक्ष गये श्री नागकुमार । इस पर्वत की भाव वंदना कर सुख पाऊँ अपरम्पार ॥ वर्तमान के प्रथम तीर्थंकर को सविनय नमन करूँ । श्री कैलाश शिखर पूजन कर सम्यक्दर्शन ग्रहण करूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा सम्यक जल से है परिपूर्ण । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली आश्रय से हो जन्म-मरण सब चूर्ण । ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥1॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा में है चित्चमत्कार की गंध । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होता कभी न बंध । ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥2॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो संसारताप विनाशनाय चदनं निर्वपामीति स्वाहा
सहजानंद स्वरूप आत्मा में अक्षय गुण का भंडार । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से मिट जाता संसार ॥ ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥3॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्रापताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
सहजानंद स्वरूप आत्मा मे हैं शिव-सुख सुरभि अपार । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से जाती काम विकार ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥4॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
पुर्णानन्द स्वरूप आत्मा में है परम भाव नैवेद्य । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो जाता निर्वेद ॥ ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥5॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा पूर्ण ज्ञान का सिंधु महान । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होते कर्म विनाश ॥ ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥6॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
नित्यानंद स्वरूप आत्मा में है ध्यान धूप की वास । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होते कर्म विनाश । ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥7॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो दुष्टाष्टकर्मविध्वसनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा
सिद्धानंद स्वरूप आत्मा में तो शिव फल भरे अनन्त । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होता मोक्ष तुरन्त ॥ ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥8॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा
शुद्धानन्द स्वरूप आत्मा है अनर्घ्य पद का स्वामी । धुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो त्रिभुवन नामी ॥ ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजूं वन्दूं अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥9॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) अष्टापद कैलाश से आदिनाथ भगवान । मुक्त हुए निज ध्यानधर हुआ मोक्ष कल्याण ॥1॥
श्री कैलाश शिखर अष्टापद तीन लोक में है विख्यात । प्रथम तीर्थंकर स्वामी ने पाया अनुपम मुक्ति प्रभात ॥2॥ इसी धरा पर ऋषभदेव को प्रगट हुआ था केवलज्ञान । समवशरण में आदिनाथ की खिरी दिव्यध्वनि महामहान ॥3॥
राग मात्र को हेय जान जो द्रव्य दृष्टि बन जायेगा । सिद्ध स्वपद की प्राप्ति करेगा शुद्ध मोक्ष पद पायेगा ॥4॥ सम्यक्दर्शन की महिमा को जो अंतर में लायेगा । रत्नत्रय की नाव बैठकर भव-सागर तर जायेगा ॥5॥
गुणस्थान चौदहवाँ पाकर तीजा शुक्ल-ध्यान ध्याया । प्रकृति बहत्तर द्विचरम समय में क्षयकर अनुपमपद पाया ॥6॥ अंतिम समय ध्यान चौथा ध्या देह-नाश कर मुक्त हुए । जा पहुँचे लोकाग्र शीश पर मुक्ति-वधू से युक्त हुए ॥7॥
तन परमाणु खिरे कपूरवत शेष रहे नख केश प्रधान । मायामय तन रच देवों ने किया अग्नि संस्कार महान ॥8॥ बालि महाबालि मुनियों ने तप कर यहाँ स्वपद पाया । नागकुमार आदि मुनियों ने सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ॥9॥
यह निर्वाण भूमि अति पावन अति पवित्र अतिसुखदायी । जिसने द्रव्य दृष्टि पाई उसको ही निज महिमा आयी ॥10॥ भरत चक्रवर्ती के द्वारा बने बहत्तर जिन मन्दिर ॥ भूत भविष्यत् वर्तमान भारत की चौबीसी सुन्दर ॥11॥
प्रतिनारायण रावण की दुष्टेच्छा हुई न किंचित पूर्ण । बाली मुनि के एक अंगूठे से हो गया गर्व सब चूर्ण ॥12॥ मंदोदरी सहित रावण ने क्षमा प्रार्थना की तत्क्षण । जिन मुनियों के क्षमा भाव से हुआ प्रभावित अंतर मन ॥१३॥
मैं अब प्रभु चरणों की पूजन करके निज स्वभाव ध्याऊँ । आत्मज्ञान की प्रचुर शाक्ति पा निज-स्वभाव में मुस्काऊँ ॥14॥ राग-मात्र को हेय जानकर शद्ध भावना ही पाऊँ। एक दिवस ऐसा आए प्रभु तुम समान मैं बन जाऊँ ॥15॥
अष्टापद कैलाश शिखर को बार-बार मेरा वंदन । भाव शुभाशुभ का अभाव कर नाश करूँ भव दुख क्रन्दन ॥16॥ आत्म-तत्त्व का निर्णय करके प्राप्त करूं सम्यक्दर्शन । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ धन्य-धन्य हो यह जीवन ॥17॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाशतीर्थ क्षेत्रेभ्यो पूर्गाय निर्वपामीति स्वाहा
अष्टापद कैलाश की महिमा अगम अपार । निज स्वरूप जो साधते हो जाते भवपार ॥ (इत्याशीर्वाद) जाप्यमंत्र - ॐ ह्रीं श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम: