समझ आत्मा के स्वरूप को, अगर मुक्तिपद पाना रे ।इसके जाने बिना किसी का, होगा नहीं ठिकाना रे ॥टेक॥देख कभी खुद के समुद्र को, क्यों सरिता पर फूला रे ।मोती की पहचान नहीं, इसलिए सीप पर झूला रे ।निरख आत्मा की दृष्टि को, यह क्या दशा तुम्हारी है ।कंचन मालिक, आज काँच के खातिर बना भिखारी है ।निधि तुम्हारी पास तुम्हारे, कहीं न बाहर जाना रे ॥इसके...१॥हूँ स्वतंत्र स्वाधीन सदा से, फिर क्यों डरने वाला रे ।कोई भी पर द्रव्य किसी का, अहित न करने वाला रे ।समझ बिन ज्ञायक स्वभाव ये, डगमग नाव तुम्हारी है ।अपना हे कर रहा अहित तू, करके भाव भिखारी है ।इस कारण से फिरा अभी तक, धार अनेकों बाना रे ॥इसके...२॥अब जो हुआ सो चेतो तुम, निज में निश्चय आने दो ।अपनी भूल समझ अपने से, जड़ को व्यर्थ न ताने दो ।तुम्हें अशुभ शुभ छोड़ दोनों के आगे बढ़ना रे ।परंपरा के पद चिन्हों से, तुम्हें कमर कस लड़ना रे ।आत्म जागरण तभी सरस हो सकता अगर यह ठाना रे ॥इसके...३॥