भक्तामर
आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार ।
धरम-धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार ॥
सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करैं, अन्तर पाप-तिमिर सब हरैं
जिनपद वंदों मन-वच-काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ॥१॥
अन्वयार्थ : भगवान ऋषभदेव के चरण-युगल में जब देवगण भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, तब उनके मुकुट में जडी मणियां प्रभु के चरणों की दिव्य कांति से और अधिक चमकने लगती है। भगवान के ऐसे दीप्तिमान चरणों का स्पर्श ही प्राणियों के पापों का नाश करने वाला है, तथा जो उन चरण-युगल का आलम्बन लेता है, वह संसार समुद्र से पार हो जाता है। इस युग के प्रारंभ में धर्म का प्रवर्तन करने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चरण-युगल में विधिवत प्रणाम करके मैं स्तुति करता हूँ।
श्रुत पारग इन्द्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव
शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुन-माल॥२॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने से जिनकी बुद्धि अत्यंत प्रखर हो गई है, ऐसे देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त को आनन्दित करने वाले सुंदर स्त्रोतों द्वारा प्रभु आदिनाथ की स्तुति की है। उन प्रथम जिनेन्द्र की मैं, अल्पबुद्धि वाला मानतुंग आचार्य भी स्तुति करने का प्रयत्न कर रहा हूँ |
विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति-मनसा कीन
जल-प्रतिबिम्ब बुद्ध को गहै, शशि-मण्डल बालक ही चहै॥३॥
अन्वयार्थ : हे देवों के द्वारा पूजित जिनेश्वर ! जिस प्रकार जल में पडते चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को पकडना असंभव होते हुए भी, नासमझ बालक उसे पकडने का प्रयास करता है, उसी प्रकार मैं अत्यंत अल्प बुद्धि होते हुए भी आप जैसे महामहिम की स्तुति करने का प्रयास कर रहा हूँ।
गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार
प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु, जलधि तिरै को भुज-बलवन्त॥४॥
अन्वयार्थ : हे गुणों के समुद्र जिनेश्वर ! आपके चन्द्रमा के समान स्वच्छ, आनन्दरूप, अनंत गुणों का वर्णन करने में देव-गुरु बृहस्पति के समान बुद्धिमान भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें, ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|
सो मैं शक्तिहीन थुति करूँ, भक्तिभाव वश कुछ नहिं डरूँ
ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत॥५॥
अन्वयार्थ : हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| जैसे हरिणी, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम
ज्यों पिक अंब-कली-परभाव, मधु-ऋतु मधुर करै आराव ॥६॥
अन्वयार्थ : हे प्रभो ! जिस प्रकार बसंत-ऋतु में आम की मंजरियां खाकर कोकिल मधुर स्वर में कूजती है, उसी प्रकार आपकी भक्ति का बल पाकर मैं भी स्तुति करने को वाचाल हो रहा हूँ। अन्यथा मेरी क्या शक्ति? मैं तो अल्पज्ञ हूँ और विद्वानों के सामने उपहास का पात्र हूँ।
तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं
ज्यों रवि उगै फटै तत्काल, अलिवत नील निशा-तम-जाल ॥७॥
अन्वयार्थ : हे आदिदेव ! आपकी भक्ति में लीन होने वाले प्राणियों के अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म आपकी भक्ति के प्रभाव से क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं, जैसे समस्त संसार को आच्छादित करने वाला भंवरे के समान काला पीला सघन अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
तव प्रभावतैं कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार
ज्यों जल-कमल-पत्र पै परै, मुक्ताफल की द्युति विस्तरै ॥८॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके दिव्य प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| जिस प्रकार कमलिनी के पत्तों पर पडी नन्हीं-नन्हीं ओस की बूँदें सूरज की किरणें पडने से मोती के समान चमकने लगती है।
तुम गुन-महिमा हत-दु:ख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष
पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकासी ज्यों रवि-धाम ॥९॥
अन्वयार्थ : हे जिनेश्वरदेव ! समस्त दोषों का नाश करने वाले आपके स्त्रोत की असीम शक्ति का तो कहना ही क्या, किन्तु श्रद्धा भक्तिपूर्वक किया गया आपका नाम भी जगत जीवों के पापों का नाश कर उन्हें पवित्र बना देता है।| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
नहिं अचम्भ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण वरणत संत
जो अधीन को आप समान, करै न सो निंदित धनवान ॥१०॥
अन्वयार्थ : हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
इकटक जन तुमको अविलोय, अवरविषै रति करै न सोय
को करि क्षीर-जलधि जल पान, क्षार नीर पीवै मतिमान ॥११॥
अन्वयार्थ : हे अनिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दिव्य स्वरूप के दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते। चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
प्रभु तुम वीतराग गुन-लीन, जिन परमाणु देह तुम की
हैं तितने ही ते परमाणु, यातैं तुम सम रूप न आनु ॥१२॥
अन्वयार्थ : हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई, वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |
कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार
कहाँ चन्द्र-मण्डल सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक ॥१३॥
अन्वयार्थ : हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |
पूरन-चन्द्र-ज्योति छबिवंत, तुम गुन तीन जगत लंघंत
एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार ॥१४॥
अन्वयार्थ : पूर्णमासी के चन्द्रमा की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीन लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घूमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |
जो सुर-तियविभ्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तो न अचंभ
अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगै न धीर ॥१५॥
अन्वयार्थ : हे वीतराग देव ! यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि सामान्य पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी सुमेरु पर्वत का शिखर हिल सका है? नहीं |
धूम रहित वाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन घर एह
वात-गम्य नाहीं परचण्ड, अपर दीप तुम बलो अखण्ड ॥१६॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत प्रकाशक अलौकिक दीपक हैं जिसे विशाल पर्वतों को कंपा देने वाला झंझावात भी कभी बुझा नहीं सकता |
छिपहु न लुपहु राहुकी छाहिं, जग-परकाशक हो छिनमाहिं
घन अनवर्त्त दाह विनिवार, रवितैं अधिक धरो गुणसार ॥१७॥
अन्वयार्थ : हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित नेह राहु अविरोह
तुम मुख-कमल अपूरब चंद, जगत विकासी जोति अमन्द ॥१८॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्रदेव ! आपका मुखमंडल नित्य उदित रहने वाला विलक्षण चंद्रमा है, जिसने मोहरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है, जो अत्यंत दीप्तिमान है, जिसे न राहु ग्रस सकता है और न बादल छिपा सकते हैं, तथा जो जगत को प्रकाशित करता हुआ अलौकिक चंद्रमंडल की तरह सुशोभित होता है ।|
निशदिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुखचंद हरै तम घाम
जो स्वभावतैं उपजै नाज, सजल मेघ तो कौनहु काज ॥१९॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? जैसे कि पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
जो सुबोध सोहै तुम माहिं, हरि नर आदिकमें सो नाहिं
जो दुति महा-रतन में होय, काच-खण्ड पावै नहिं सोय ॥२०॥
अन्वयार्थ : अनंत गुण-पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान जिस प्रकार आप में सुशोभित होता है वैसा हरि-हरादिक अर्थात विष्णु-ब्रह्मा-महेश आदि लौकिक देवों में है ही नहीं। स्फ़ुरायमान महारत्नों में जैसा तेज होता है, किरणों की राशि से व्याप्त होने पर भी काँच के टुकडों में वैसा तेज नहीं होता ।
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ॥
कछु न तोहि देख के जहाँ तुही विशेखिया
मनोग चित्त-चोर और भूल हूँ न पेखिया ॥२१॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं
न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं ॥
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥२२॥
अन्वयार्थ : सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो
कहैं मुनीश अन्धकार-नाश को सुभान हो ॥
महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके
न और मोहि मोखपंथ देह तोहि टालके ॥२३॥
अन्वयार्थ : हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है |
अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ॥
महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ॥२४॥
अन्वयार्थ : सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं
तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतैं ॥
तुही विधात है सही सु मोखपंथ धारतैं
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतैं ॥२५॥
अन्वयार्थ : देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
नमों करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो
नमों करूँ सु भूरि भूमि-लोक के सिंगार हो ॥
नमों करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो
नमों करूँ महेश तोहि मोखपंथ देतु हो ॥२६॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो|
तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्व करि तुम परिहरे
और देव-गण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय ॥२७॥
अन्वयार्थ : हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
तरु अशोक-तर किरन उदार, तुम तन शोभित हे अविकार
मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत ॥२८॥
अन्वयार्थ : ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
सिंहासन मनि-किरन-विचित्र, तापर कंचन-वरन पवित्र
तुम तन शोभित किरन-विथार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार ॥२९॥
अन्वयार्थ : मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
कुन्द-पहुप-सित-चमर ढुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत
ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरैं नीर उमगांति ॥३०॥
अन्वयार्थ : कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|
ऊँचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपैं अगोप
तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झालरसौं छबि लहैं ॥३१॥
अन्वयार्थ : चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
दुन्दुभि-शब्द गहर गम्भीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर
त्रिभुवन-जन शिवसंगम करैं, मानूँ जय-जय रव उच्चरै ॥३२॥
अन्वयार्थ : गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है|
मन्द पवन गन्धोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पहुप सुवृष्ट
देव करैं विकसित दल सार, मानौं द्विज-पंकति अवतार ॥३३॥
अन्वयार्थ : सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है ।
तुम तन-भामण्डल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द
कोटिशंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ॥३४॥
अन्वयार्थ : हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति, एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होने पर भी चन्द्रमा से अधिक शीतलता, सौम्यता प्रदान करने वाली है । |
स्वर्ग-मोख-मारग संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत
दिव्य वचन तुम खिरैं अगाध, सब भाषागर्भित हित साध ॥३५॥
अन्वयार्थ : आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने में सक्षम, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है ।
विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं
तुम पद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहिं ॥३६॥
अन्वयार्थ : नव विकसित स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्णमयी कमलों की रचना करते जाते हैं ।
ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय
सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय ॥३७॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य होता है, वैसा अन्य देवों को कभी प्राप्त नहीं होता। अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झंकारै
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं ॥
काल-वरन विकराल कालवत सनमुख आवैं
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावैं ॥
देखि गयन्द न भय करै, तुम पद-महिमा छीन
विपति रहित सम्पति सहित, वरतैं भक्त अदीन ॥३८॥
अन्वयार्थ : आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी, भय नहीं होता|
अति मद-मत्त-गयन्द कुम्भथल नखन विदारै
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै ॥
बाँकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै
भीम भयानक रूप देखि जन थरहर डोलै ॥
ऐसे मृगपति पगतलैं, जो नर आयो होय
शरण गये तुम चरण की, बाधा करै न सोय ॥३९॥
अन्वयार्थ : सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|
प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटन्तर
बमैं फुलिंग शिखा उतंग पर जलैं निरन्तर ॥
जगत समस्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानों
तडतडाट दव-अनल जोर चहुँ दिशा उठानो ॥
सो इक छिन में उपशमें, नाम-नीर तुम लेत
होय सरोवर परिनमै, विकसित कमल समेत ॥४०॥
अन्वयार्थ : आपकी नाम स्मरणरुपी जलधारा, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देती है ।
कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलंता
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलन्ता ॥
फण को ऊँचो करै वेग ही सन्मुख धाया
तब जन होय निशंक देख फेणपति को आया ॥
जो चाँपै निज पगतलैं, व्यापै विष न लगार
नाग-दमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ॥४१॥
अन्वयार्थ : जिस पुरुष के ह्रदय में नाम स्मरणरुपी-नागदमनी नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखों वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निःशंक निर्भय होकर पुष्पमाला की भांति दोनों पैरों से लाँघ जाता है |
जिस रनमाहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम
घन-से गज गरजाहिं मत्त मानो गिरि जंगम ॥
अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै
राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै ॥
नाथ तिहारे नामतैं, सो छिनमाहिं पलाय
ज्यों दिनकर परकाशतैं, अन्धकार विनशाय ॥४२॥
अन्वयार्थ : आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है |
मारै जहाँ गयन्द कुम्भ हथियार विदारै
उमगै रुधिर प्रवाह बेग जल-सम विस्तारै ॥
होय तिरन असमर्थ महाजोधा बल पूरे
तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे ॥
दुर्जय अरिकुल जीत के, जय पावैं निकलंक
तुम पद-पंकज मन बसै, ते नर सदा निशंक ॥४३॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं ।
नक्र चक्र मगरादि मच्छ करि भय उपजावै
जामैं बड़वा अग्नि दाहतैं नीर जलावै ॥
पार न पावै जास थाह नहिं लहिये जाकी
गरजै अतिगम्भीर लहर की गिनती न ताकी ॥
सुखसों तिरै समुद्र को, जे तुम गुन सु राहिं
लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ॥४४॥
अन्वयार्थ : क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं |
महा जलोदर रोग भार पीड़ित नर जे हैं
वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहै हैं ॥
सोचत रहैं उदास नाहिं जीवन की आशा
अति घिनावनी देह धरैं दुर्गन्धि-निवासा ॥
तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज-अंग
ते नीरोग शरीर लहि, छिन में होय अनंग ॥४५॥
अन्वयार्थ : उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अमृत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं |
पाँव कंठतैं जकर बाँध साँकल अति भारी
गाढ़ी बेड़ी पैरमाहिं जिन जाँघ विदारी ॥
भूख प्यास चिंता शरीर दु:खजे विललाने
सरन नाहिं जिन कोय भूप के बन्दीखाने ॥
तुम सुमरत स्वयमेव ही, बन्धन सब खुल जाहिं
छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं ॥४६॥
अन्वयार्थ : जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है |
महामत्त गजराज और मृगराज दवानल
फणपति रण परचंड नीर-निधि रोग महाबल ॥
बन्धन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै
तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै ॥
इस अपार संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय
यातैं तुम पद-भक्त को, भक्ति सहाई होय ॥४७॥
अन्वयार्थ : जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है |
यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी
विविध-वर्णमय-पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी ॥
जे नर पहिरे कंठ भावना मन में भावैं
'मानतुंग' ते निजाधीन-शिव-लछमी पावैं ॥
भाषा भक्तामर कियो, 'हेमराज' हित हेत
जे नर पढ़ैं सुभावसों, ते पावैं शिव-खेत ॥४८॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है |