सुनो जिया ये सतगुरु की बातैं, हित कहत दयाल दया तैं ॥टेक॥यह तन आन अचेतन है तू, चेतन मिलत न यातैंतदपि पिछान एक आतम को, तजत न हठ शठ-तातैं ॥१॥चहुँगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खातैंतदपि न तजत न रजत अभागै, दृग व्रत बुद्धिसुधातैं ॥२॥मात तात सुत भ्रात स्वजन तुझ, साथी स्वारथ नातैंतू इन काज साज गृहको सब, ज्ञानादिक मत घातै ॥३॥तन धन भोग संजोग सुपन सम, वार न लगत विलातैंममत न कर भ्रम तज तू भ्राता, अनुभव-ज्ञान कलातैं ॥४॥दुर्लभ नर-भव सुथल सुकुल है, जिन उपदेश लहा तैं'दौल' तजो मनसौं ममता ज्यों, निवडो द्वंद दशातैं ॥५॥
अर्थ : अरे जिया ! तू सत्गुरु का उपदेश सुन; वे दयालु, करुणाकर तेरे हित के लिए कहते हैं ।
यह देह अचेतन है और तू चेतन है, यह अन्य है, तुझसे भिन्न है इसलिए इस देह से तेरा मेल नहीं है तथापि तू इसमें घुल-मिल रहा है, एकाकार हो रहा है। तू मूर्ख अपनी हठ छोड़कर अपने आत्मा को पहचान !
तू मोहवश चारों गतियों में भ्रमण करता हुआ, इंद्रियविषयों के भोगरूपी महाविष का पान कर रहा है। फिर भी तू उसको नहीं छोड़ता। हे भाग्यहीन, उनमें तू रंजायमान (तृप्त, प्रसन्न) मत हो; दर्शन, ज्ञान व व्रतरूपी अमृत का पान कर ।
यह तन, यह धन और इनका भोग - ये सब संयोग स्वप्नवत् हैं और इनके विलय होने में देर नही लगती। इनसे ममत्व मत कर। तू अनुभव और ज्ञान से समझकर अपना भ्रम छोड़ दे।
यह मनुष्य जन्म, अच्छा क्षेत्र, अच्छा कुल तुझे मिला है और साथ हो जिसमें तुझे श्री जिनेन्द्र का उपदेश सुनने का अवसर मिला है | दौलतराम कहते हैं कि मन से ममत्व को छोड़कर इस दुविधाभरी दशा से छुटकारा पाओ।
माता-पिता, पुत्र- भाई और तेरे कुटुम्बीजन-सब ही स्वारथ के संबंधी है; तू इनके लिए घर को सुव्यवस्थित व सुसज्जित बनाने में लगकर अपने ज्ञान आदि का नाश मत कर।