काहेको सोचत अति भारी, रे मन!पूरब करमन की थित बाँधी, सो तो टरत न टारी ॥टेक॥सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी ।केवलज्ञान विषैं प्रतिभासी, सो सो ह्वै है सारी ॥काहे १॥सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख ख्वारी ।चिंता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी ॥काहे २॥रोग सोग उपजत चिंतातैं, कहौ कौन गुनवारी ।'द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिंता सब जारी ॥काहे ३॥
अर्थ : अरे मन ! तू क्यों-किसलिए इतना सोचता है !
पूर्व में किए हुए कर्मों का स्थिति बंध हो चुका है, वह किसी भी प्रकार से टाला नहीं जा सकता अर्थात् वह सब तो भोगना ही है । तीनों काल भूत, भविष्यत, वर्तमान में सभी द्रव्यों की अपनी-अपनी अलग-अलग परिणति है। वे सब परिणतियाँ केवल ज्ञान में प्रत्यक्ष भासती हैं, दीखती हैं, वे सब वैसी ही होंगी।
जितना-जितना सोच विचार होता है, उतना संक्लेश बढ़ता है। उससे कर्मबंध होता है, तो दुःख ही बढ़ता है। चिन्ता चिता के समान कही जाती है, उससे बुद्धि जल जाती हैं, नष्ट हो जाती है, काली हो जाती है।
चिन्ता के कारण रोग व शोक दोनों ही बढ़ते हैं । उनसे किसी भी प्रकार गुणों की वृद्धि नहीं होती । द्यानतराय कहते हैं कि जिसने इस प्रकार जान लिया, उन्होंने अनुभव किया और मोक्ष प्राप्त किया, उन्होंने चिन्ताओं को ही समूल नष्ट कर दिया।