उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे ।कुंदकुसुमसम चमर अमरगन, ढारत मोदभरे ॥टेक॥तरु अशोक जाको अवलोकत, शोकथोक उजरे ।पारजात संतानकादिके, बरसत सुमन वरे ॥१॥सुमणिविचित्र पीठअंबुजपर, राजत जिन सुथिरे ।वर्णविगत जाकी धुनिको सुनि, भवि भवसिंधुतरे ॥२॥साढ़े बारह कोड़ जातिके, बाजत तूर्य खरे ।भामंडलकी दुतिअखंडने, रविशशि मंद करे ॥३॥ज्ञान अनंत अनंत दर्श बल, शर्म अनंत भरे ।करुणामृतपूरित पद जाके, 'दौलत' हृदय धरे ॥४॥
अर्थ : समवशरण में जिनके शीश के ऊपर तीन छत्र हैं, जहाँ कुंद के पुष्प के समान सफेद चंवरों को देवगण ढोरते हैं, सुरेन्द्र, नागेन्द्र व नरेन्द्र उन्हें अपने शीश नमाकर आनन्दित होते हैं।
जो समवशरण में अशोक वृक्ष को देखता है उसके दुःखों का समूह उजड़ जाता है, भंग हो जाता है । संतानक, पारिजात आदि श्रेष्ठ पुष्पों की वहाँ वर्षा होती है।
वहाँ सुन्दर मणियों से जड़ित-कमलरूपी सिंहासन पर श्री जिनेन्द्रदेव स्थिर होकर विराजमान हैं। उनकी निरक्षरी दिव्यध्वनि को सुनकर भव्यजन इस भवसमुद्र से पार होते हैं, तिर जाते हैं।
(समवशरण में) साढ़े बारह करोड़ जाति के बाजे बजते हैं । उनके भामंडल की आभा सूर्य के तेज व चन्द्रमा की कांति को भी फीका (निस्तेज) कर देती है।
उन अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त बल व अनन्त सुख के धारी अरिहन्त के करुणामयी चरणों को दौलतराम अपने हृदय में धारण करते हैं।