आतम काज सँवारिये, तजि विषय किलोलैंतुम तो चतुर सुजान हो, क्यों करत अलोलैं ॥टेक॥सुख दुख आपद सम्पदा, ये कर्म झकोलैं ।तुम तो रूप अनूप हो, चैतन्य अमोलैं ॥आतम...१॥तन धनादि अपने कहो, यह नहिं तुम तोलैं ।तुम राजा तिहुँ लोकके, ये जात निठोलैं ॥आतम...२॥चेत चेत 'द्यानत' अबै, इमि सद्गुरु बोलैं ।आतम निज पर-पर लखौ, अरु बात ढकोलैं ॥आतम...३॥
अर्थ : अरे भाई! तू इन्द्रिय-भोग और विषय-वासना की लहरों में अपनी आमोद प्रमोद की क्रिया को छोड़कर अपनी आत्मा को सँभालने-सँवारने के कार्य में रत होजा अर्थात उस व्यवस्था को सुधार ले जिससे तेरी आत्मा का कल्याण हो। अरे, तुम तो चतुर हो, ज्ञानी हो, फिर क्योंकर जड़ के समान व्यवहार करते हो?
सुख दुख, आपदाएँ व सम्पत्तियाँ - ये सब तो झकोरे हैं (पेन्डुलम की भाँति) एक दिशा से दूसरी और दूसरी से पहली के बीच ही धकमपेल है पर तुम अनुपम रूप के धारी चैतन्य हो, जो अमूल्य है।
तुम जिस धन आदि वैभव को अपना कहते हो, उससे तुम्हारी कोई समानता नहीं है। तुम तीन लोक के राजा हो, स्वामी हो। ये सारी बातें तो अकार्य की, बेकार को, निरर्थक बातें हैं ये सब निठल्लापन की बातें हैं।
द्यानतराय कहते हैं कि अब सद्गुरु समझाते हैं कि अब तू चेत जा। आत्मा को आत्मा जान, निज को निज व पर को पर जान। इस भेदज्ञान के अलावा सब बातें व्यर्थ हैं।