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तुम परम पावन देख जिन
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तुम परम पावन देख जिन, अरि-रज-रहस्य विनाशनं ।
तुम ज्ञान-दृग-जलवीच त्रिभुवन कमलवत प्रतिभासनं ॥
आनंद निजज अनंत अन्य, अचिंत संतल परनये ।
बल अतुल कलित स्वभावतें नहिं, खलित गुन अमिलित थये ॥१॥

सब राग रुष १०हनि परम श्रवन, स्वभाव धन निर्मल दशा ।
इच्छा रहित भवहित १२खिरत, वच सुनत ही भुमतम नशा ॥
१३एकान्त-सहन-सुदहन स्यात्पद, बहन मय निजपर दया ।
जाके प्रसाद विषाद बिन, मुनिजन १४सपदि शिवपद लया ॥२॥

भूजन वसन सुमनादिविन तन, ध्यानमय मुद्रा दियै ।
नासाग्र नयन सुपलक हलयन, तेज लखि खगगन छिपै ॥
पुनि वदन निरखत प्रशमजल, १५वरखत १६सुहरखत उर धरा ।
वुधि स्वपर परखत पुन्य आकर, कलि कलिल दुरखतजरा ॥३॥

इत्यादि वहिरंतर असाधरन, सुविभव निधान जी ।
इन्द्रादिविंद पदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी ॥
मैं चिर दुखी पर १७चाहतैं, तुम धर्म नियत न उर धरो ।
परदेव सेव करी बहुत, नहिं काज एक तहाँ १८सरो ॥४॥

अब 'भागचन्द्र' उदय भयो, मैं शरन आयो तुम १९तने ।
इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक वुध भने ॥
परमाहिं इष्ट, अनिष्ट-मति-तजि, मगन निज गुन में रहों ।
दृगज्ञान-चर संपूर्ण पाऊं, भागचंद न पर चहों ॥५॥

कर्म-धूलि कमल की तरह प्रतिभासित होता है
सुंदर पतिल (दुष्ट) अलग हो गये १०द्वेष, ११नष्ट करके १२खिरते हुए
१३एकान्त सिद्धान्त को जलाने वाला स्याद्बाद १४शीघ्र १५बरसने से १६प्रसन्न होता है १७पर द्रव्यों की चाह से १८पूरा हुआ
१९पास