कर रे ! कर रे ! कर रे ! तू आतम हित कर रे ।काल अनंत गयो जग भमतैं, भव भव के दुःख हर रे ॥टेक॥लाख कोटि भव तपस्या करतैं, जीतो कर्म तेरी जर रे ।स्वास - उस्वास माहिं सो नासै, जब अनुभव चित धर रे ॥कर रे ! कर रे ! कर रे ! तू आतम हित कर रे ॥१॥काहे कष्ट सहै वन माहीं, राग - दोष परिहर रे ।काज होय समभाव बिना नहिं, भावो पचि-पचि मर रे ॥कर रे ! कर रे ! कर रे ! तू आतम हित कर रे ॥२॥लाख सीख की सीख एक यह, आतम-निज पर-पर रे ।कोटि ग्रन्थ को सार यही है, 'द्यानत' लख भव तर रे ॥कर रे ! कर रे ! कर रे ! तू आतम हित कर रे ॥३॥
अर्थ : हे प्राणी! अनन्त काल इस संसार-महावन में भटकते हुए व्यतीत हो गया। अब तो इन भव-भवान्तरों के दुःख का हरण कर मुक्त कर दे। तू अपनी आत्मा का हित-भला कर रे।
लाखों भव तक तपस्या करके भी इस कर्मरूपी रोग का नाश करो, उसे जीतो। जिस क्षण भी तुम अपने अनुभव में आजाओगे, उसी श्वासोश्वास में, उसी क्षण में कर्म नष्ट हो जायेंगे।
किस कारण से किसलिए तू वन में जाकर कष्ट सहन करता है? तू मात्र राग-द्वेष को छोड़ दे। समता भाव के बिना कुछ भी नहीं होगा। उसके बिना तू चाहे कितना ही मरता-पचता रह ।
लाख बात की एक बात यह है कि यह अनुभव कर कि मैं आत्मा हूँ और सब पर हैं। यह भेदज्ञान ही करोड़ों ग्रन्थों का सार है। द्यानतराय कहते हैं कि तू इतना-सा समझकर भव से पार हो ले।