धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी,बरसत भ्रमताप हरन ज्ञानघनझरी ॥टेक॥जाके विन पाये भवविपति अति भरी ।निज परहित अहित की कछू न सुधि परी ॥धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ॥१॥जाके परभाव चित्त सुथिरता करी ।संशय भ्रम मोहकी कु वासना टरी ॥धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ॥२॥मिथ्या गुरुदेवसेव टेव परिहरी ।वीतरागदेव सुगुरुसेव उरघरी ॥धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ॥३॥चारों अनुयोग सुहितदेश दिठपरी ।शिवमगके लाह की सुचाह विस्तरी ॥धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ॥४॥सम्यक् तरु धरनि येह करन करिहरी ।भवजलको तरनि समर-भुजंग विषजरी ॥धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ॥५॥पूरवभव या प्रसाद रमनि शिव वरी ।सेवो अब 'दौल' याहि बात यह खरी ॥धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी ॥६॥
अर्थ : साधर्मी बंधुओं के परस्पर मिलने की यह घड़ी , यह अवसर धन्य है जिससे भ्रमरूपी ताप का नाश होकर ज्ञानरूपी वर्षा होती है ।
ऐसे अवसर की प्राप्ति के बिना इस भव में, इस संसार में अनेक दुःख पाते हैं स्व और पर के हित और अहित का ज्ञान नहीं होता ।
परभाव अर्थात अन्य के प्रति लगाव की भावना समाप्त होकर चित्त में स्थिरता आती है और संशय, भ्रम, मोह की वासनाएँ रुक जाती हैं ।
साधर्मी बंधुओं के सत्संग से कुगुरु व कुदेव की सेवा करने की आदत छूट जाती है और हृदय में वितरागदेव व गुरु की भक्ति जाग्रत होती है ।
इस संगति से अपने कल्याण के लिए चारों अनुयोगों पर दृष्टि जाती है , उनकी ओर रुचि होती है और मोक्ष का लाभ व उस मार्ग पर बढ़ने की चाह बढ़ जाती है ।
यह संगति सम्यक्त्वरूपी वृक्ष को धारण करने वाली है, देह व मन को वश में करने वाली है, संसार समुद्र से तारने वाली नौका है व कामदेव रूपी भयंकर सर्प के विष को निरस्त करने वाली है अर्थात साधर्मी बंधुओं की संगति कामदेवरूपी सर्प के विष को दूर करने वाली जड़ी बूटी है ।
पूर्व कर्मों के फलस्वरूप यह मोक्षमार्गरूपी लक्ष्मी मिली है , इसकी साधना करो । दौलतराम कहते है कि यह ही बात खरी है, सत्य है ।