काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो ।जैसे कुल्हिया कांचकी, जाके विनसत नाहीं वार हो ॥टेक॥मांसमयी माटी लई अरु, सानी रुधिर लगाय हो ।कीन्हीं करम कुम्हारने, जासों काहूकी न वसाय हो ॥काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो ॥१॥और कथा याकी सुनौं, यामैं अध उरध दश ठेह हो ।जीव सलिल तहाँ थंभ रह्यौ भाई, अद्भुत अचरज येह हो ॥काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो ॥२॥ यासौं ममत निवारकैं, नित रहिये प्रभु अनुकूल हो ।'भूधर' ऐसे ख्याल का भाई, पलक भरोसा भूल हो ॥काया गागरि, जोझरी, तुम देखो चतुर विचार हो ॥३॥
अर्थ : हे चतुर ! जरा विचार करो और देखो यह कायारूपी गागर जर्जरित हो रही है, इसकी स्थिति काँच के पात्र को-सी है जिसे नष्ट होने में जरा भी देर नहीं लगती। मांसमयी मिट्टी को रक्त से सानकर कर्मरूपी कुम्हार ने इसे बनाया है जिसमें किसी का भी स्थिर निवास नहीं होता। इसकी एक कथा और सुनो, इसमें ऊपरनीचे दश द्वार हैं जिसमें जीव-जल ठहरा हुआ है, यह एक विचित्र आश्चर्य है ! इससे (काया से) ममता छोड़कर, प्रभु से अनुरूपता करो, उससे मेल करो, उसका चितवन करो। भूधरदास कहते हैं कि शीघ्र ही ऐसा ख्याल (विचार / चिंतन) करो, क्योंकि तनिक सा भी भरोसा करना भूल हो सकती है। अर्थात् शरीर पर भरोसा मत करो।