ज्ञान ज्ञेयमाहिं नाहि, ज्ञेय हू न ज्ञानमाहिं,ज्ञान ज्ञेय आन आन, ज्यों मुकर घट है ॥टेक॥ज्ञान रहै ज्ञानीमाहिं, ज्ञान बिना ज्ञानी नाहिं,दोऊ एकमेक ऐसे, जैसे श्वेत पट है ॥१॥ध्रुव उतपाद नास, परजाय नैन भास,दरवित एक भेद, भाव को न ठट है ॥२॥'द्यानत' दरब परजाय विकलप जाय,तब सुख पाय जब, आप आप रट है ॥३॥
अर्थ : ज्ञान ज्ञेय में नहीं जाता, इस ही भाँति ज्ञेय ज्ञान में नहीं आता । ज्ञान और ज्ञेय दोनों अलग-अलग हैं । जैसे घट व दर्पण दोनों अलग-अलग हैं । जैसे दर्पण में घट का प्रतिबिम्ब झलकता है, घट उस दर्पण में नहीं होता, दर्पण और घट अलग-अलग हैं, उसी प्रकार ज्ञान में ज्ञेय झलकता है, ज्ञेय ज्ञान में नहीं जाता ।
ज्ञानी अलग है और ज्ञेय अलग है । ज्ञान ज्ञानी में रहता है । बिना ज्ञान के ज्ञानी नहीं होता । दोनों ऐसे एकमेक हैं जैसे कोई श्वेत उज्ज्वल वस्त्र होता है, वस्त्र और उसका श्वेतपना एकमेक होता है ।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये पर्याय आँखों से दिखाई देती हैं । ये द्रव्य के हो भेद हैं, भावों की रचना नहीं है । द्यानतराय कहते हैं कि द्रव्य और उसकी पर्याय का विकल्प छूट जाए अर्थात् दोनों समग्र दीखें तब सुख का अनुभव होता है और स्व मात्र स्व रह जाता है।