विषापहारस्तोत्रम्
स्वात्म-स्थितः सर्वगतः समस्त-,व्यापार-वेदी विनिवृत्त-संङ्गः ।
प्रवृद्ध-कालोऽप्यजरो वरेण्यः, पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥१॥
अपने में ही स्थिर रहता है, और सर्वगत कहलाता ।
सर्व-संग-त्यागी होकर भी, सब व्यापारों का ज्ञाता ॥
काल-मान से वृद्ध बहुत है, फिर भी अजर अमर स्वयमेव ।
विपदाओं से सदा बचावे, वह पुराण पुरुषोत्तम देव ॥१॥
अन्वयार्थ : [स्वात्म-स्थितः सर्व-गतः] आत्म-स्वरूप में स्थित होकर भी सर्वव्यापक, [समस्त-व्यापार-वेदी विनिवृत्त-संगः] सब व्यापारों के जानकार होकर भी परिग्रह-रहित, [प्रवृद्धकाल: अपि अजर:] दीर्घायु होकर भी बुढ़ापे से रहित, [वरेण्यः] श्रेष्ठ [पुरुषः पुराणः] पुरातन पुरूष हमें [पायादपायाद्] विनाश से बचावें ॥१॥
परैरचिन्त्यं युगभारमेकः, स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः ।
स्तुत्योऽद्यमेऽसौ वृषभो न भानोः, किमप्रवेशे विशति प्रदीपः ॥२॥
जिसने पर-कल्पनातीत, युग-भार अकेले ही झेला ।
जिसके सुगुन-गान मुनिजन भी, कर नहिं सके एक बेला ॥
उसी वृषभ की विशद विरद यह, अल्पबुद्धि जन रचता है ।
जहाँ न जाता भानु वहाँ भी, दीप उजाला करता है ॥२॥
अन्वयार्थ : [परैचिन्त्यं] दूसरों के द्वारा चिन्तवन के अयोग्य [युग-भारमेकः] अकेले ही युग-परिवर्तन का भार वहन करने वाले, [योगिभि: अपि] मुनियों के द्वारा भी [स्तोतुम् अशक्यः] जिनकी स्तुति नहीं की जा सकती, [असौ वृषभ:] ऐसे वृषभेश की [अद्य] आज [मे स्तुत्य:] मैं स्तुति करता हूँ । [भानो:] सूर्य का [अप्रवेश] प्रवेश नहीं होने पर [किम् प्रदीप: ण विशति] क्या दीपक प्रवेश नहीं करता ? ॥२॥
तत्त्याज शक्रः शकनाभिमानं, नाहं त्यजामि स्तवनानुबन्धम् ।
स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं, वातायनेनेव निरुपयामि ॥३॥
शक्र सरीखे शक्तिवान ने, तजा गर्व गुण गाने का ।
किन्तु मैं साहस न छोड़ूँगा, विरदावली बनाने का ॥
अपने अल्पज्ञान से ही मैं, बहुत विषय प्रकटाऊँगा ।
इस छोटे वातायन से ही, सारा नगर दिखाऊँगा ॥३॥
अन्वयार्थ : [शक्रः] इंद्र ने [शकनाभिमानम्] स्तुति कर सकने की शक्ति का अभिमान [तत्याज] छोड़ दिया था किन्तु [अहम्] मैं [स्तवनानुबन्धम्] स्तुति के उद्योग को [न त्यजामि] नहीं छोड़ रहा हूँ । मैं [वातायनेन इव] झरोखे की तरह [स्वल्पेन बोधेन] थोड़े से ज्ञान के द्वारा [तत्: अधिकार्थं] उससे अधिक अर्थ को [निरुपयामि] निरुपित कर रहा हूँ ॥३॥
त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो, विद्वानशेषं निखिलैरवेद्यः ।
वक्तुं क्रियान्कीदृश मित्यशक्यः, स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु ॥4॥
तुम सब-दर्शी देव किन्तु, तुमको न देख सकता कोई ।
तुम सबके ही ज्ञाता पर, तुमको न जान पाता कोई ॥
'कितने हो' 'कैसे हो' यों कुछ, कहा न जाता हे भगवान् ।
इससे निज अशक्ति बतलाना, यही तुम्हारा स्तवन महान् ॥४॥
अन्वयार्थ : [त्वं विश्र्वदृश्र्वा] आप सारे विश्व को देखते हैं किन्तु [सकलैरदृश्यो] सबके द्वारा नहीं देखे जाते [विद्वानशेषं] सबको जानते हैं किन्तु [निखिलैरवेद्यः] सबके द्वारा नहीं जाने जाते आप [कियान्कीदृश] कितने और कैसे हैं [इति वक्तुं अशक्यः] यह कहा नहीं जा सकता [स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु] इसलिए आपकी स्तुति मेरी असामर्थ्य की कहानी ही है ॥४॥
व्यापीडितं बालमिवात्म-दोषै,-रुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वम् ।
हिताहितान्वेषणमान्द्यभाजः, सर्वस्य जन्तोरसि बालवैद्यः ॥5॥
बालक सम अपने दोषों से, जो जन पीड़ित रहते हैं ।
उन सबको हे नाथ! आप, भवताप रहित नित करते हैं ॥
यों अपने हित और अहित का, जो न ध्यान धरने वाले ।
उन सबको तुम बाल-वैद्य हो, स्वास्थ्य-दान करने वाले ॥५॥
अन्वयार्थ : [बालम् इव] बालक की तरह [आत्मदोषै:] अपने द्वारा किए गए अपराधों से [व्यापीडितं] अत्यन्त पीड़ित [लोकम्] संसारी मनुष्यों को [उल्लाघताम्] निरोगता [वापिपस्त्वम्] आपने प्राप्त कराइ है [हिताहितान्वेषणमान्द्यभाजः] भले-बुरे के विचार करने में मूर्खता को प्राप्त [सर्वस्य जन्तोरसि बाल-वैद्यः] सब प्राणियों के आप बाल-वैद्य हैं ॥५॥
दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा, -नद्यश्व इत्यच्युत दर्शिताशः ।
सव्याजमेवं गमयत्यशक्तः, क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय ॥6॥
देने लेने का काम नहीं कुछ, आज कल्य परसों करके ।
दिन व्यतीत करता अशक्त रवि, व्यर्थ दिलासा देकर के ॥
पर हे अच्युत! जिनपति तुम यों, पल भर भी नहिं खोते हो ।
शरणागत नत भक्तजनों को, त्वरित इष्ट फल देते हो ॥६॥
अन्वयार्थ : [विवस्वान्] सूर्य [दाता न हर्ता] न कुछ देता है, न कुछ लेता है [दिवसं] दिन को [अच्युत] अनवरत [अद्यश्र्व:] आज... कल.. [इत्] इसतरह [गमयत्यशक्तः] शक्तिहीन गमन करते हुए [सव्याजम्] कपट-सहित [दर्शिताशः] दिखाता है [एवं] किन्तु आप [नताय] नम्र मनुष्य को [क्षणेन] क्षण-भर में [दत्सेऽभिमतं] इच्छित वस्तु दे देते हैं ॥६॥
उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि, त्वयि स्वभावाद्-विमुखश्च दुःखम् ।
सदावदात-द्युतिरेकरुप, -स्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ॥7॥
भक्तिभाव से सुमुख आपके, रहने वाले सुख पाते ।
और विमुख जन दुख पाते हैं, रागद्वेष नहिं तुम लाते ॥
अमल सुदुतिमय चारु आरसी, सदा एकसी रहती ज्यों ।
उसमें सुमुख विमुख दोनों ही, देखें छाया ज्यों की त्यों ॥७॥
अन्वयार्थ : [सुमुखः त्वयि] आपके अनुकूल चलने वाला [भक्त्या] भक्ति से [सुखानि] सुखों को [उपैति] प्राप्त करता है [स्वभावाद्विमुखश्र्च] प्रतिकूल चलने वाला स्वभाव से ही [दुःखम्] दुःख पाता है किन्तु [सदावदात-द्युति] हमेशा उज्जवल कान्ति-युक्त [एकरुप:] एक सदृश [तयो:] उन-दोनों के आगे [त्वमादर्श इव] आप दर्पण की भाँति [अवभासि] शोभायमान रहते हैं ॥७॥
अगाधताब्धेः स यतः पयोधि-, र्मेरोश्च तुंगा प्रकृतिः स यत्र ।
द्यावापृथिव्योः पृथुता तथैव, व्यापत्वदीया भुवनान्तराणि ॥8॥
गहराई निधि की, ऊँचाई गिरि की, नभ-थल की चौड़ाई ।
वहीं वहीं तक जहाँ-जहाँ तक, निधि आदिक दें दिखलाई ॥
किन्तु नाथ! तेरी अगाधता, और तुंगता, विस्तरता ।
तीन भुवन के बाहिर भी है, व्याप रही हे जगत्पिता ॥८॥
अन्वयार्थ : [अगाधताब्धेः] अथाह गहराई [स यतः पयोधि:] वह वहीँ है जहाँ समुद्र हैं [मेरोश्र्च तुंगा पृकृतिः स यत्र] अथाह उंचाई वहीँ है जहाँ सुमेरू पर्वत है [द्यावाप्रथिव्योः पृथुता तथैव] आकाश पृथ्वी की विशालता भी उसी प्रकार है परन्तु आप [व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि] तीनों लोकों के भी पार व्यापते हैं ॥८॥
तवानवस्था परमार्थतत्त्वं, त्वया न गीतः पुनरागमश्च ।
दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषी-, र्विरुद्ध-व्रत्तोऽपि समञ्जसस्त्वम् ॥9॥
अनवस्था को परम तत्त्व, तुमने अपने मत में गाया ।
किन्तु बड़ा अचरज यह भगवन्, पुनरागमन न बतलाया ॥
त्यों आशा करके अदृष्ट की, तुम सुदृष्ट फल को खोते ।
यों तब चरित दिखें उलटे से, किन्तु घटित सब ही होते ॥९॥
अन्वयार्थ : [अनवस्था] परिवर्तशीलता [तव] आपका [परमार्थ-तत्त्वं] वास्तविक सिद्धांत है और [त्वया] आपके द्वारा [न गीतः पुनरागमश्च] मोक्ष से वापिस आने का उपदेश नहीं दिया गया है; [दृष्टं विहाय] प्रत्यक्ष इस लोक सम्बन्धी सुख छोड़कर [त्वमदृष्टमैषी:] परलोक सम्बन्धी सुख को चाहते हैं, इस तरह [विरुद्धव्रत्त: अपि] विपरीत प्रवृत्तियुक्त होने पर भी [समञ्जसस्त्वम्] आप उचितता से युक्त हैं ॥९॥
स्मरः सुदग्धो भवतैव तस्मिन्-, नुद्धूलितात्मा यदि नाम शम्भुः ।
अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णुः, किं ग्रह्यते येन भवानजागः ॥10॥
काम जलाया तुमने स्वामी, इसीलिए यह उसकी धूल ।
शंभु रमाई निज शरीर में, होय अधीर मोह में भूल ॥
विष्णु परिग्रहयुत सोते हैं, लूटे उन्हें इसी से काम ।
तुम निर्ग्रंथ जागते रहते, तुमसे क्या छीने वह वाम ॥१०॥
अन्वयार्थ : [भवतैव] आपके द्वारा ही [स्मरः सुदग्धो] काम अच्छी तरह से भस्म किया गया [यदि नाम शम्भुः] यदि महादेव का नाम लें तो [तस्मिन्नुद्धूलितात्मा] वह काम के विषय में कलंकित हो गया था [अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णुः] विष्णु ने वृन्दा / लक्ष्मी के साथ शयन किया था [येन] लेकिन [भवानजागः] आप काम-निद्रा द्वारा अचेत नहीं हुए इसलिए [किं ग्रह्यते] कामदेव के द्वारा आपकी कौनसी वस्तु ग्रहण हुई ? ॥१०॥
स नीरजाः स्यादपरोऽघवान्वा, तद्दोषकीर्त्यैव न ते गुणित्वम् ।
स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव!, स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥11॥
और देव हों चाहे जैसे, पाप सहित अथवा निष्पाप ।
उनके दोष दिखाने से ही, गुणी कहे नहिं जाते आप ॥
जैसे स्वयं सरितपति की अति, महिमा बढ़ी दिखाती है ।
जलाशयों के लघु कहने से, वह न कहीं बढ़ जाती है ॥११॥
अन्वयार्थ : [स नीरजाः] वह पाप-रहित है [स्यादपरोऽघवान्वा] और कदाचित कोई दूसरा पाप-सहित है, इस तरह [तद्दोषकीर्त्यैव न ते गुणित्वम्] उनके दोषों का वर्णन करने-मात्र से आपका गुणीपना नहीं होता [स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा] समुद्र की महिमा स्वभाव से ही होती है [न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य] 'यह छोटा है' इस तरह तालाब की निंदा करने से नहीं होती ॥११॥
कर्मस्थितिं जन्तुरनेक-भूमिम्, नयत्यमुं सा च परस्परस्य ।
त्वंनेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ, जिनेन्द्र नौनाविकयोरिवाख्यः ॥12॥
कर्मस्थिति को जीव निरन्तर, विविध थलों में पहुँचाता ।
और कर्म इन जग-जीवों को, सब गतियों में ले जाता ॥
यों नौका नाविक के जैसे, इस गहरे भव-सागर में ।
जीव-कर्म के नेता हो प्रभु, पार करो कर कृपा हमें ॥१२॥
अन्वयार्थ : [जन्तु:] जीव और [कर्मस्थितिं] कर्म की स्थिति [सा परस्परस्य] एक दूसरे को [अनेकभूमिम्] अनेक जगह [नयत्यमुं] ले जाते हैं [जिनेन्द्र] हे जिनेन्द्र-भगवान [त्वं] आपने [तयो:] उनका [नेतृभावंहि] यह नेतृत्व भाव [हि] वास्तव में [भवाब्धौ] संसार रुपी समुद्र में [नौनाविकयोरिवाख्यः] नाव और खेवटिये के समान कहा है ॥१२॥
सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान्, धर्माय पापानि समाचरन्ति ।
तैलाय बालाः सिकतासमूहं, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीयाः ॥13॥
गुण के लिए लोग करते हैं, अस्ति-धारणादिक बहु दोष ।
धर्म हेतु पापों में पड़ते, पशुवधादि को कह निर्दोष ॥
सुखहित निज-तन को देते हैं, गिरिपातादि दु:ख में ठेल ।
यों जो तव मतबाह्य मूढ़ वे, बालू पेल निकालें तेल ॥१३॥
अन्वयार्थ : [स्फुटमत्वदीयाः] आपके प्रतिकूल चलने वाला स्पष्टत: [सुखाय दुःखानि] सुख के लिए दुःखों को [गुणाय दोषान्] गुण के लिए दोषों को, [धर्माय पापानि] धर्म के लिए पापों को [समाचरन्ति] करता है जैसे [वालाः] अज्ञानी [तैलाय सिकता-समूहं] तेल के लिए बालू के समूह को [निपीडयन्ति] पेलता है ॥१३॥
विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च ।
भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पर्याय-नामानि तवैव तानि ॥14॥
विषनाशक मणि मंत्र रसायन, औषध के अन्वेषण में ।
देखो तो ये भोले प्राणी, फिरें भटकते वन-वन में ॥
समझ तुम्हें ही मणिमंत्रादिक, स्मरण न करते सुखदायी ।
क्योंकि तुम्हारे ही हैं ये सब, नाम दूसरे पर्यायी ॥१४॥
अन्वयार्थ : [विषापहारं] विष को दूर करने वाले [मणिमौषधानि] मणि, औषधि, [मन्त्रं] मंत्र [रसायनं च] और रसायन को [समुद्दिश्य] उद्देश्य करके [भ्राम्यन्त्यहोन] यहाँ-वहां घूमते हैं [त्वमिति] आप ही हैं [स्मरन्ति] यह याद नहीं रखते [तानि] वे [तवैव] आपके ही [पर्याय-नामानि] पर्यायवाची हैं ॥१४॥
चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं, देवः कृतश्चेतसि येन सर्वम् ।
हस्ते क्रतं तेन जगद्विचित्रं, सुखेन जीवत्यपि चित्तबाह्यः ॥15॥
हे जिनेश! तुम अपने मन में, नहीं किसी को लाते हो ।
पर जिस किसी भाग्यशाली के, मन में तुम आ जाते हो ॥
वह निज-कर में कर लेता है, सकल जगत को निश्चय से ।
तव मन से बाहर रहकर भी, अचरज है रहता सुख से ॥१५॥
अन्वयार्थ : [त्वं देवः] हे देव आप [चित्ते] हृदय में [न किञ्चित्कृतवानसि] कुछ भी धारण नहीं करते लेकिन [येन] जिसने भी [कृतश्र्चेतसि] आपको हृदय में धारण किया [तेन] उसके [सर्वम् हस्ते कृतम्] हाथ में सब आ गया , वह [जगद्विचित्र] संसार के विचित्र [चित्तबाह्यः] हृदय में न समाने वाले [सुखेन जीवत्यपि] सुखों द्वारा जीता है ॥१५॥
त्रिकाल-तत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी-, स्वामीति संख्या-नियतेरमीषाम् ।
बोधाधिपत्यंप्रति नाभविष्यं-, स्तेऽन्येऽपिचेद् व्याप्स्यदमूनपीदम् ॥16॥
त्रिकालज्ञ त्रिजगत के स्वामी, ऐसा कहने से जिनदेव ।
ज्ञान और स्वामीपन की, सीमा निश्चित होती स्वयमेव ॥
यदि इससे भी ज्यादा होती, काल जगत की गिनती और ।
तो उसको भी स्थापित करते, ये तव गुण दोनों सिरमौर ॥१६॥
अन्वयार्थ : [त्रिकालतत्त्वं अवै] त्रिकाल के पदार्थों को जानने से, [त्रिलोकी स्वामि] तीन-लोक के स्वामी [इति] इससे [संख्या-नियतेरमीषाम्] सीमा निश्चित होती है [बोधाधिपत्यंप्रति न] ज्ञान के साम्राज्य के सामने यह संख्या कुछ नहीं है [अभविष्यस्तेऽन्येऽपिचेद्] यदि ऐसे अनन्त और भी होते [त्वम् व्याप्स्यदमूनपीदम्] उन्हें भी आप व्याप्त कर लेते ॥१६॥
नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं, नागम्यरुपस्य तवोपकारि ।
तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य भानो-, रुद्बिभ्रतच्छत्रमिवादरेण ॥17॥
प्रभु की सेवा करके सुरपति, बीज स्वसुख के बोता है ।
हे अगम्य अज्ञेय न इससे, तुम्हें लाभ कुछ होता है ॥
जैसे छत्र सूर्य के सम्मुख, करने से दयालु जिनदेव ।
करने वाले ही को होता, सुखकर आतपहर स्वयमेव ॥१७॥
अन्वयार्थ : [अगम्यरुपस्य] हे अगम्य अज्ञेय [नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं] इंद्र की मनोहर सेवा से [न तवोपकारि] आपका कुछ उपकार नहीं होता [भानोरुद्विभ्रतच्छत्रमिवादरेण] सूर्य के लिए आदरपूर्वक छत्र धारण करने वाले की तरह [तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य] वह उस इंद्र के अपने सुख का ही कारण है ॥१७॥
क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः, स चेत्किमिच्छा-प्रतिकूलवादः ।
क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वम्-, तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते ॥18॥
कहाँ तुम्हारी वीतरागता, कहाँ सौख्यकारक उपदेश ।
हो भी तो कैसे बन सकता, इन्द्रिय-सुख-विरुद्ध आदेश? ॥
और जगत की प्रियता भी तब, सम्भव कैसे हो सकती ? ।
अचरज, यह विरुद्ध गुणमाला, तुममें कैसे रह सकती? ॥१८॥
अन्वयार्थ : [क्वोपेक्षकस्त्वं] कहाँ राग-द्वेष रहित आप और [क्व सुखोपदेशः] कहाँ सुख का उपदेश? [स चेत्किमिच्छा-प्रतिकूल-वादः] यदि देते भी हैं तो इच्छा के बिना कैसे बोलते हैं? [क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं] वह जगत के सभी जीवों को प्रिय क्यों हैं? [तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते] अत: आपकी वास्तविकता का विवेचन नहीं हो सकता ॥18॥
तुगांत्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च, प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादेः ।
निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रे-,र्नैकापि निर्याति धुनी पयोधेः ॥19॥
तुम समान अति तुंग किन्तु, निधनों से जो मिलता स्वयमेव ।
धनद आदि धनिकों से वह फल, कभी नहीं मिल सकता देव ।
जल विहीन ऊँचे गिरिवर से, नाना नदियाँ बहती हैं ।
किन्तु विपुल जलयुक्त जलधि से, नहीं निकलती, झरती हैं ॥१९॥
अन्वयार्थ : [तुगांत्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च प्राप्यं] उदार चित्त दरिद्र-मनुष्य से जो फल प्राप्त हो सकता है वह [सम्रद्धान्न धनेश्र्वरादेः न] वह सम्पत्तिवान धनाढ्य से नहीं प्राप्त हो सकता [निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रेर्नैकापि] पानी से शून्य अत्यन्त ऊंचे पर्वत के समान [निर्याति धुनी पयोधेः] समुद्र से एक भी नदी नहीं निकलती ॥19॥
त्रैलोक्य-सेवा-नियमाय दण्डं, दध्रे यदिन्द्रो विनयेन तस्य ।
तत्प्रातिहार्यं भवतः कुतस्त्यं, तत्कर्म-योगाद्यदि वा तवास्तु ॥20॥
करो जगत-जन जिनसेवा, यह समझाने को सुरपति ने ।
दंड विनय से लिया, इसलिए प्रातिहार्य पाया उसने ॥
किन्तु तुम्हारे प्रातिहार्य वसु-विधि हैं सो आए कैसे? ।
हे जिनेन्द्र! यदि कर्मयोग से, तो वे कर्म हुए कैसे? ॥२०॥
अन्वयार्थ : [त्रैलोक्य-सेवा-नियमाय] तीन-लोक के जीव भगवान की सेवा करो इसको दर्शाने के लिए [दण्डं दध्रे यदिन्द्रो विनयेन] इंद्र विनय से दण्ड धारण करता है [तस्य तत्प्रातिहार्यं भवतः कुतस्त्यं] इन्द्र के द्वारा वह आपका प्रातिहार्य कैसे होता है [तत्कर्म-योगाद्यदि वा तवास्तु] यदि कर्म-योग से होता है, तो वह प्रातिहार्य आपका हुआ ॥20॥
श्रिया परंपश्यति साधु निःस्वः, श्रीमान्न कश्चित्कृपणंत्वदन्यः ।
यथा प्रकाश-स्थितमन्धकार-,स्थायीक्षेऽसौ न तथा तमःस्थम् ॥21॥
धनिकों को तो सभी निधन, लखते हैं, भला समझते हैं ।
पर निधनों को तुम सिवाय जिन, कोई भला न कहते हैं ॥
जैसे अन्धकारवासी, उजियाले वाले को देखे ।
वैसे उजियाला वाला नर, नहिं तमवासी को देखे ॥२१॥
अन्वयार्थ : [निःस्वः] निर्धन पुरुष [श्रिया परम्] लक्ष्मी से श्रेष्ठ को [पश्यति साधु] आदरभाव से देखता है परन्तु [त्वदन्यः] आपके अलावा [श्रीमान् कश्र्चित्] कोई धनी [कृपणं न] निर्धन को अच्छे भावों से नहीं देखता [यथा] जैसे [अन्धकारस्थायी] अन्धकार में ठहरा हुआ [प्रकाश-स्थितम्] प्रकाश में स्थित को [ईक्षते] देख लेता है [असौ न तथा तमः स्थम्] उसी प्रकार उजाले में स्थित पुरुष अँधेरे में स्थित पुरुष को नहीं देख पाता ॥21॥
स्ववृद्धिनिःश्वास-निमेषभाजि, प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूढः ।
किं चाखिल-ज्ञेय-विवर्ति-बोध-,स्वरुपमध्यक्षमवैति लोकः ॥22॥
निज शरीर की वृद्धि श्वास-उच्छ्वास और पलकें झपना ।
ये प्रत्यक्ष चिह्न हैं जिसमें, ऐसा भी अनुभव अपना ॥
कर न सकें जो तुच्छबुद्धि वे, हे जिनवर! क्या तेरा रूप ।
इन्द्रियगोचर कर सकते हैं, सकल ज्ञेयमय ज्ञानस्वरूप? ॥२२॥
अन्वयार्थ : [प्रत्यक्षम्] यह प्रत्यक्ष है कि [स्ववृद्धिनिःश्र्वास-निमेषभाजि] अपनी वृद्धि, स्वासोच्छ्वास , आखों की टिमकार और [आत्मानुभवेऽपि] आत्मानुभव में भी [मूढः] मूर्ख [लोकः] लोग [अखिलज्ञेयविवर्त्तिबोधस्वरुपम्] सम्पूर्ण पदार्थों की सम्पूर्ण पर्यायों को जानकर [अध्यक्षम्] सकल-प्रत्यक्ष [किं च अवैति] कैसे कर सकते हैं ॥22॥
तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव!, त्वां येऽवगायन्ति कुलंप्रकाश्य ।
तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं, पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ॥23॥
'उनके पिता' 'पुत्र हैं उनके', कर प्रकाश यों कुल की बात ।
नाथ! आपकी गुण-गाथा जो, गाते हैं रट रट दिनरात ॥
चारु चित्तहर चामीकर को, सचमुच ही वे बिना विचार ।
उपल-शकल से उपजा कहकर, अपने कर से देते डार ॥२३॥
अन्वयार्थ : [देव] हे देव [ये] जो [कुलम्प्रकाश्य] कुल का वर्णन में [त्वां] आप [तस्यात्मज:] उसके पुत्र हो [तस्य पिता] उनके पिता हो, [अवगायन्ति] इस प्रकार रटते हैं [तेऽद्यपि] वे आज भी [नन्वाश्मनम्] यह पत्थर से उपजा है [इति] ऐसा कहकर [अवश्यं] अवश्य [पाणौ कृतं] हाथ में आए हुए [हेम पुनस्त्यजन्ति] स्वर्ण को छोड़ देते हैं ॥23॥
दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूताः, सुराऽसुरास्तस्य महान् सलाभः ।
मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोद्धुर्-,मूलस्य नाशो बलवद्विरोधः ॥24॥
तीन लोक में ढोल बजाकर, किया मोह ने यह आदेश ।
सभी सुरासुर हुए पराजित, मिला विजय यह उसे विशेष ॥
किन्तु नाथ! वह निबल आपसे, कर सकता था कहाँ विरोध ।
वैर ठानना बलवानों से, खो देता है खुद को खोद ॥२४॥
अन्वयार्थ : [सुरासुर:] सुर और असुर को [अभिभूताः] पराजित करके [दत्तस्त्रिलोक्यां पटह:] तीन लोक में विजय नगाड़ा बजाया [स: तस्य] वह उस का [महान् सलाभः] बड़ा लाभ हुआ किन्तु [मोहस्य मोहस्त्वयि को] आपके विषय में मोह को कोई भ्रम नहीं हो सकता [विरोद्धुर्मूलस्य नाशो बलवद्विरोधः] बलवान से विरोध करना अपने आपको समूल नाश करना है ॥24॥
मार्गस्त्वयैकोददृशे विमुक्ते-,श्चतुर्गतीनां गहनं परेण ।
सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन, त्वं मा कदाचिद्-भुजमालुलोक: ॥25॥
तुमने केवल एक मुक्ति का, देखा मार्ग सौख्यकारी ।
पर औंरों ने चारों गति के, गहन पंथ देखे भारी ॥
इससे सब कुछ देखा हमने, यह अभिमान ठान करके ।
हे जिनवर! नहिं कभी देखना, अपनी भुजा तान करके ॥२५॥
अन्वयार्थ : [मार्गस्त्वयैको दद्दशे विमुक्ते:] आपने एक मोक्ष का मार्ग देखा [चतुर्गतीनां गहनं परेण] दूसरों ने घोर चतुर्गति का मार्ग देखा इसलिए [सर्वं मया द्दष्टंमिति स्मयेन] 'मैंने सब-कुछ देखा' ऐसा कहकर गर्व से [त्वं मा कदाचिभ्द्रुजमालुलोक] तुम कभी अपनी भुजाओं को नहीं देखो ॥25॥
स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भः, कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विघातः ।
संसार-भोगस्य वियोग-भावो, विपक्ष-पूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ॥26॥
रवि को राहु रोकता है, पावक को वारि बुझाता है ।
प्रलयकाल का प्रबल पवन, जलनिधि को नाच नचाता है ॥
ऐसे ही भव-भोगों को, उनका वियोग हरता स्वयमेव ।
तुम सिवाय सबकी बढ़ती पर, घातक लगे हुए हैं देव ॥२६॥
अन्वयार्थ : [स्वर्भानु:] राहु, [अर्कस्य] सूर्य का [हविर्भुजोऽम्भः] पानी अग्नि का [कल्पान्तवातोऽम्बुनिधे:] प्रलयकाल की वायु समुद्र का [संसार-भोगस्य वियोग-भावो] संसार के भोगों का विरहभाव द्वारा [विघातः] नाश होता है [विपक्ष-पूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये] आपसे भिन्न सब पदार्थ नाश के साथ ही पैदा होते हैं ॥26॥
अजानतस्त्वां नमतः फलं यत्-,तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति ।
हरिन्मणिं काचधिया दधानस्-,तं तस्य बुद्ध्या वहतो न रिक्त: ॥27॥
बिन जाने भी तुम्हें नमन, करने से जो फल फलता है ।
वह औरों को देव मान, नमने से भी नहिं मिलता है ॥
ज्यों मरकत को काँच मानकर, करगत करने वाला नर ।
समझ सुमणि जो कांच गहे, उसके सम रहे न खाली कर ॥२७॥
अन्वयार्थ : [अजानतस्त्वां नमतः फलं यत्] आपको जाने बिना ही नमस्कार करने वाले को जो मिलता है [तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति] वह दसरे देवता को जानकर नमने वालों को प्राप्त नहीं होता [हरिन्मणिं] हरे मणि को [काचाधिया] कांच की बुद्धि से [दधान्] घारण करने वाला [तं तस्य बुद्धयां वहतो न रिक्त] कांच को सुमणि जानकार धारण करने वाले के सामान दरिद्र नहीं होता ॥27॥
प्रशस्त-वाचश्चतुराः कषायै-,र्दग्धस्य देव-व्यवहारमाहुः ।
गतस्य दीपस्य हि नन्दितत्त्वं, दृष्टं कपालस्य च मगंलत्वम् ॥28॥
विशद मनोज्ञ बोलने वाले, पंडित जो कहलाते हैं ।
क्रोधादिक से जले हुए को, वे यों 'देव' बताते हैं ॥
जैसे 'बुझे हुए' दीपक को, 'बढ़ा हुआ' सब कहते हैं ।
और कपाल विघट जाने को, 'मंगल हुआ' समझते हैं ॥२८॥
अन्वयार्थ : [प्रशस्त-वाचश्र्चतुराः] सुन्दर वचन बोलनेवाले पंडित [कषायैर्दग्धस्य] क्रोधादि कषायों से जलते हुए को [देव-व्यवहारमाहुः] देव कहते हैं; [हि] [गतस्य दीपस्य हि] बुझे हुए दीपक को [नन्दितत्वं] 'बढ़ा हुआ' [च] और [कपालस्य मगंलत्वम्] फूटे हुए घड़े का 'मंगलपना' [दृष्टं] देखा जाता है ॥28॥
नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं, हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः ।
निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ॥29॥
नयप्रमाणयुत अतिहितकारी, वचन आपके कहे हुए ।
सुनकर श्रोताजन तत्त्वों के, परिशीलन में लगे हुए ॥
वक्ता का निर्दोषपना, जानेंगे क्यों नहिं हे गुणमाल ।
ज्वरविमुक्त जाना जाता है, अच्छे स्वर से ही तत्काल ॥२९॥
अन्वयार्थ : [नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं] आपके कहे हुए प्रमाणात्मक और नयात्मक [हितं वचस्ते] हितकारी वचनों को [निशमय्य] सुनकर [वक्तुः निर्दोषतां] वक्ता की निर्दोषता [के न विभावयन्ति] कौन अनुभव नहीं करेगा ? [ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण] ज्वर से मुक्त होने पर स्वर मधुर हो जाता है ॥29॥
न क्कापि वाञ्छा ववृते च वाक्ते, काले क्वचित्कोऽपि तथा नियोगः ।
न पूरयाम्यम्बुधिमित्युदंशुः, स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ॥30॥
यद्यपि जग के किसी विषय में, अभिलाषा तव रही नहीं ।
तो भी विमल वाणी तव खिरती, यदा कदाचित् कहीं-कहीं ॥
ऐसा ही कुछ है नियोग यह, जैसे पूर्णचन्द्र जिनदेव ।
ज्वार बढ़ाने को न ऊगता, किन्तु उदित होता स्वयमेव ॥३०॥
अन्वयार्थ : [न क्कापि वाञ्छा ववृते च वाक्ते] आपके किसी प्रकार की इच्छा नहीं है और वचन प्रवृत्त होने का [काले क्वचित्कोऽपि तथा नियोगः] किसी काल में कोई नियोग होता है; [पूरयाभ्यम्बुधिमित्युदंशुः] 'मैं समुद्र को लहरों से पूर्ण कर दूं' इसलिए [न शीतद्युतिरभ्युदेति] चन्द्रमा उदित नहीं होता [हि] किन्तु [स्वयं] स्वभाव से ही होता है ॥30॥
गुणा गंभीराः परमाः प्रसन्ना:, बहु-प्रकारा बहवस्तवेति ।
दृष्टोऽयमन्तः स्तवने न तेषाम्, गुणो गुणानां किमतः परोऽस्ति ॥31॥
हे प्रभु! तेरे गुण प्रसिद्ध हैं, परमोत्तम हैं, गहरे हैं ।
बहु प्रकार हैं, पार रहित हैं, निज स्वभाव में ठहरे हैं ॥
स्तुति करते-करते यों देखा, छोर गुणों का आखिर में ।
इनमें जो नहिं कहा रहा वह, और कौन गुण जाहिर में ॥३१॥
अन्वयार्थ : आप [गभीराः] गंभीर हैं, [परमाः] उत्कृष्ट हैं, [प्रसन्ना] उज्जवल हैं, [बहुप्रकारा बहव: स्तवेन् गुणा] और अनेक प्रकार के बहुत गुण हैं [इति अयम्] इस प्रकार [द्दष्ट: अन्तः स्तवने] स्तुति के द्वारा ही अन्त देखा गया है [न तेषां गुणो गुणानां किमतः परोऽस्ति] इसके सिवाय क्या गुणों का कहीं अन्त है ? ॥31॥
स्तुत्या परंनाभिमतं हि भक्त्या, स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि ।
स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं, केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ॥32॥
किन्तु न केवल स्तुति करने से, मिलता है निज अभिमत फल ।
इससे प्रभु को भक्तिभाव से, भजता हूँ प्रतिदिन प्रतिपल ॥
स्मृति करके सुमरन करता हूँ, पुनि विनम्र हो नमता हूँ ।
किसी यत्न से भी अभीष्ट-साधन की इच्छा रखता हूँ ॥३२॥
अन्वयार्थ : [स्तुत्या परंनाभिमतं हि] स्तुति के द्वारा ही इच्छित वस्तु की सिद्धि नहीं होती किन्तु [भक्त्या स्मृत्या प्रणत्या च] भक्ति, स्मृति और नमस्कार से भी होती है [ततो भजामि स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं] इसलिए हे देव, आपकी भक्ति, आपका स्मरण और आपको नमस्कार करता हूँ [केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम्] क्योंकि इच्छित फल को किसी भी उपाय से प्राप्त कर लेना चाहिए ॥32॥
ततस्त्रिलोकी-नगराधिदेवं, नित्यं परं ज्योतिरनन्त-शक्तिम् ।
अपुण्य-पापं पर-पुण्य-हेतुं, नमाभ्यहं वन्द्यमवन्दितारम् ॥33॥
इसीलिए शाश्वत तेजोमय, शक्ति अनन्तवन्त अभिराम ।
पुण्य पाप बिन, परम पुण्य के, कारण परमोत्तम गुणधाम ॥
वन्दनीय, पर जो न और की, करें वंदना कभी मुनीश ।
ऐसे त्रिभुवन-नगर-नाथ को, करता हूँ प्रणाम धर सीस ॥३३॥
अन्वयार्थ : [ततस्त्रिलोकी-नगराधिदेवं] अत: तीन-लोक रूप नगर के अधिपति, [नित्यं परं ज्योतिरनन्त-शक्तिम्] विनाश-रहित, उत्कृष्ट ज्ञान-ज्योति, अनन्त शक्तिमय, [अपुण्य-पापं पर-पुण्य-हेतुं] स्वयं पुण्य-पाप से रहित और दूसरों के पुण्य में कारण [नमाभ्यहं वन्द्यमवन्दितारम्] वन्दित होकर भी किसी को नहीं वन्दने वाले, आपको नमस्कार करता हूँ ॥33॥
अशब्दमस्पर्शमरुप-गन्धं, त्वां नीरसं तद्विषयावबोधम् ।
सर्वस्य मातारममेयमन्यै-,र्जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥34॥
जो नहिं स्वयं शब्द रस सपरस, अथवा रूप गंध कुछ भी ।
पर इन सब विषयों के ज्ञाता, जिन्हें केवली कहें सभी ॥
सब पदार्थ जो जानें पर न, जान सकता कोई जिनको ।
स्मरण में न आ सकते हैं जो, करता हूँ सुमरन उनको ॥३४॥
अन्वयार्थ : [अशब्दम्] शब्द-रहित [अस्पर्शम्] स्पर्श रहित [अरुप-गन्धं] रूप, गन्ध रहित और [त्वां नीरसं] रस-रहित होकर भी [तद्विषयावबोधम्] उनके ज्ञान से सहित [सर्वस्य मातारम्] सबके ज्ञाता होकर भी [अमेयमन्यैर्जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि] जिन्हे नहीं जाना जा सकता, स्मरण किया जा सकता ऐसे जिनेन्द्र भगवान् का मैं प्रतिक्षण स्मरण करता हूँ, ध्यान करता हूँ ॥34॥
अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंघ्यं, निष्किञ्चनम् प्रार्थितमर्थवद्भिः ।
विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं, पतिं जनानां शरणं व्रजामि ॥35॥
लंघ्य न औरों के मन से भी, और गूढ़ गहरे अतिशय ।
धनविहीन जो स्वयं किन्तु, जिनका करते धनवान विनय ॥
जो इस जग के पार गये पर, पाया जाय न जिनका पार ।
ऐसे जिनपति के चरणों की, लेता हूँ मैं शरण उदार ॥३५॥
अन्वयार्थ : [अगाधम्] गंभीर, [अन्यैर्मनसाप्यलग्घयं] दूसरों के द्वारा मन से भी उल्लंघन करने के अयोग्य [निष्किञ्चनं प्रार्थितमर्थवभ्दिः] निर्धन होते हुए भी धनाढ्यों द्वारा याचित [विश्र्वस्य पारं तमद्दष्टपारं] विश्व के पार-स्वरूप, जिनका पार कोई नहीं देख सका [पतिं जनानां शरणं ब्रजामि] उन जिनेन्द्र-देव की मैं शरण को प्राप्त होता हूँ ॥35॥
त्रैलोक्य-दीक्षा-गुरवे नमस्ते, यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत् ।
प्राग्गण्डशैलः पुनरद्रि-कल्पः, पश्चान्न मेरुः कुल पर्वतोऽभूत् ॥36॥
मेरु बड़ा सा पत्थर पहले, फिर छोटा सा शैलस्वरूप ।
और अन्त में हुआ न कुलगिरि, किन्तु सदा से उन्नत रूप ॥
इसी तरह जो वर्धमान है, किन्तु न क्रम से हुआ उदार ।
सहजोन्नत उस त्रिभुवन-गुरु को, नमस्कार है बारम्बार ॥३६॥
अन्वयार्थ : [त्रैलोक्य-दीक्षा-गुरवे नमस्ते] त्रिभुवन के जीवों के दीक्षागुरुस्वरूप, आपको नमस्कार हो [यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत्] आप क्रम से वर्धमान नहीं हुए हैं, आप स्वभाव से उन्नत थे; [प्राग्गण्डशैलः] पहले गोल पत्थरों का ढेर, [पुनरद्रि-कल्पः] फिर पहाड़ [पश्र्चान्न मेरुः कुल पर्वतोऽभूत्] फिर मेरु कुलाचल पर्वत नहीं हुआ ॥36॥
स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा-,न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम् ।
न लाघवं गौरवमेकरुपं, वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ॥37॥
स्वयं प्रकाशमान जिस प्रभु को, रात दिवस नहिं रोक सका ।
लाघव गौरव भी नहिं जिसको, बाधक होकर टोक सका ॥
एक रूप जो रहे निरन्तर, काल-कला से सदा अतीत ।
भक्तिभार से झुककर उसकी, करूँ वंदना परम पुनीत ॥३७॥
अन्वयार्थ : [स्वयंप्रकाशस्य] स्वयं प्रकाशमान, [दिवा निशा वा] दिन और रात की तरह [न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम्] जिसके न बाध्यता है और न बाधकता है [न लाघवं गौरवमेकरुपं] न लघुता, न गुरुता, एक रूप रहने वाले [वन्दे विभुं कालकलामतीतम्] काल-कला से रहित परमेश्वर की मैं वन्दना करता हूँ ॥37॥
इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्-,वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि ।
छायातरुंसंश्रयतः स्वतः स्यात्-,कश्छायया याचितयात्मलाभ: ॥38॥
इस प्रकार गुणकीर्तन करके, दीन भाव से हे भगवान ।
वर न मांगता हूँ मैं कुछ भी, तुम्हें वीतरागी वर जान ॥
वृक्षतले जो जाता है, उस पर छाया होती स्वयमेव ।
छाँह-याचना करने से फिर, लाभ कौन सा है जिनदेव? ॥३८॥
अन्वयार्थ : [इति स्तुतिं देव विधाय] इस प्रकार स्तुति करके मैं, हे देव ! [दैन्याद्वरं न याचे] वरदान नहीं मांगता क्योंकि [त्वमुपेक्षकोऽसि] आप उपेक्षक हैं [छायातरुंसंश्रयतः स्वतः स्यात्] वृक्ष का आश्रय करने वाले को छाया स्वत: ही प्राप्त हो जाती है [कश्छायया याचितयात्मलाभ] छाया की याचना से क्या लाभ है? ॥38॥
अस्थास्ति दित्सा यदि वोपरोध-,स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम् ।
करिष्यते देव तथा कृपां मे-,को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः ॥39॥
यदि देने की इच्छा ही हो, या इसका कुछ आग्रह हो ।
तो निज चरन-कमल-रत निर्मल, बुद्धि दीजिए नाथ अहो ॥
अथवा कृपा करोगे ही प्रभु, शंका इस में जरा नहीं ।
अपने प्रिय सेवक पर करते, कौन सुधी जन दया नहीं ॥३९॥
अन्वयार्थ : [अस्थास्ति दित्सा यदि वा] यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो [वा उपरोध:] अथवा वर मांगो, ऐसा आग्रह है तो [त्वयि एवं सक्तां] आपमें लीन [दिश भक्ति-बुद्धिम्] भक्तिमयी बुद्धि प्रदान हो, [करिष्यते देव तथा कृपा मे] हे देव! आप ऐसी कृपा करिये [को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः] अपने प्रिय सेवक पर कौन पंडित-पुरुष अनुकूल नहीं होता? ॥39॥
वितरति विहिता यथाकथञ्चिज्-,जिन विनताय मनीषितानि भक्तिः ।
त्वयि नुति-विषया पुनर्विशेषाद्-,दिशति सुखानि यशो 'धनंजयं' च ॥40॥
यथाशक्ति थोड़ी सी भी, की हुई भक्ति श्रीजिनवर की ।
भक्तजनों को मनचाही, सामग्री देती जगभर की ॥
इससे गूंथी गई स्तवन में, यह विशेषता से रुचिकर ।
'प्रेमी' देगी सौख्य सुयश को, तथा 'धनंजय' को शुचितर ॥४०॥
अन्वयार्थ : [यथाकथञ्चिज्जिन] जिस तरह थोड़ी भी [विहिता] की गई [भक्तिः] भक्ति [विनताय मनीषितानि] नम्र मनुष्य को इच्छित वस्तु [वितरति] देती है [पुन:] फिर [त्वयि नुति-विषया] आपके विषय में की गई स्तुति / भक्ति तो [विशेषाद्] विशेष रूप से [सुखानि यशो 'धनंजयं' च] सुख, कीर्ति, धन-संपत्ति और जय [दिशति] देती है ॥40॥