रत्नाकर-पंचविंशतिका
श्री रत्नाकर सूरि विरचित स्तोत्र
हिन्दी पद्यानुवाद - कविश्री रामचरित उपाध्याय
श्रेयः श्रियां मङ्गलकेलिसद्म, नरेन्द्रदेवेन्द्रनताङ्घ्रिपद्म ।
सर्वज्ञ ! सर्वातिशयप्रधान, चिरं जय ज्ञानकलानिधान ॥1॥
शुभ-केलि के आनंद के धन के मनोहर धाम हो,
नरनाथ से सुरनाथ से पूजित चरण गतकाम हो
सर्वज्ञ हो सर्वोच्च हो सबसे सदा संसार में,
प्रज्ञा कला के सिन्धु हो, आदर्श हो आचार में ॥१॥
जगत्त्रयाधार ! कृपावतार, दुर्वारसंसारविकारवैद्य ।
श्रीवीतराग ! त्वयि मुग्ध भावाद्विज्ञ, प्रभो ! विज्ञपयामि किञ्चित् ॥2॥
संसार-दु:ख के वैद्य हो, त्रैलोक्य के आधार हो,
जय श्रीश! रत्नाकरप्रभो! अनुपम कृपा-अवतार हो
गतराग! है विज्ञप्ति मेरी, मुग्ध की सुन लीजिए,
क्योंकि प्रभो! तुम विज्ञ हो, मुझको अभय वर दीजिए ॥२॥
किं बाललीलाकलितो न बालः, पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः ।
तथा यथार्थं कथयामि नाथ, निजाशयं सानुशयस्तवाग्रे ॥3॥
माता-पिता के सामने, बोली सुनाकर तोतली,
करता नहीं क्या अज्ञ बालक, बाल्य-वश लीलावली
अपने हृदय के हाल को, त्यों ही यथोचित-रीति से,
मैं कह रहा हूँ आपके, आगे विनय से प्रीति से ॥३॥
दत्तं न दानं परिशीलितं तु, न शालि शीलं न तपोभितप्तम् ।
शुभो न भावोभ्यभवद् भवेऽस्मिन्, विभो ! मया भ्रान्तमहो मुधैव ॥4॥
मैंने नहीं जग में कभी कुछ, दान दीनों को दिया,
मैं सच्चरित भी हूँ नहीं, मैंने नहीं तप भी किया
शुभ-भावनाएँ भी हुई, अब तक न इस संसार में,
मैं घूमता हूँ, व्यर्थ ही, भ्रम से भवोदधि-धार में ॥४॥
दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दुष्टो, दुष्टेन लोभाख्यमहोरगेण ।
ग्रस्तोभिमानाजगरेण माया,-जालेन बद्धोऽस्मि कथं भजे त्वाम् ॥5॥
क्रोधाग्नि से मैं रात-दिन हा! जल रहा हूँ हे प्रभो !
मैं 'लोभ' नामक साँप से, काटा गया हूँ हे विभो !
अभिमान के खल-ग्राह से, अज्ञानवश मैं ग्रस्त हूँ,
किस भाँति हों स्मृत आप, माया-जाल से मैं व्यस्त हूँ ॥५॥
कृतं मयाऽमुत्र हितं न चेह - लोकेऽपि लोकेश ! सुखं न मेऽभूत् ।
अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश ! जज्ञे भवपूरणाय ॥6॥
लोकेश! पर-हित भी किया, मैंने न दोनों लोक में,
सुख-लेश भी फिर क्यों मुझे हो, झींकता हूँ शोक में
जग में हमारे सम नरों का, जन्म ही बस व्यर्थ है,
मानो जिनेश्वर! वह भवों की, पूर्णता के अर्थ है ॥६॥
मन्ये मनो यन्न मनोज्ञवृत्तं, त्वदास्यपीयूषमयूखलाभात् ।
द्रुतं महानन्दरसं कठोर-मस्मादृशां देव ! तदश्मतोऽपि ॥7॥
प्रभु! आपने निज मुख-सुधा का, दान यद्यपि दे दिया,
यह ठीक है पर चित्त ने, उसका न कुछ भी फल लिया
आनंद-रस में डूबकर, सद्वृत्त वह होता नहीं,
है वज्र-सा मेरा हृदय, कारण बड़ा बस है यही ॥७॥
त्वत्तः सुदुःप्रापमिदं मयाप्तं, रत्नत्रयं भूरिभवभ्रमेण ।
प्रमादनिद्रावशतो गतं तत्, कस्याग्रतो नायक ! पूत्करोमि ॥8॥
रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है, प्रभु से उसे मैंने लिया,
बहु-काल तक बहु-बार जब, जग का भ्रमण मैंने किया
हा! खो गया वह भी विवश, मैं नींद आलस में रहा,
बतलाइये उसके लिए रोऊँ, प्रभो! किसके यहाँ? ॥८॥
वैराग्यरङ्गः परवञ्चनाय, धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय ।
वादाय विद्याऽध्ययनं च मेऽभूत्, कियद् ब्रुवे हास्यकरं स्वमीश! ॥9॥
संसार ठगने के लिए, वैराग्य को धारण किया,
जग को रिझाने के लिए, उपदेश धर्मों का दिया
झगड़ा मचाने के लिए, मम जीभ पर विद्या बसी,
निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ, हे प्रभो! अपनी हँसी ॥९॥
परापवादेन मुखं सदोषं, नेत्रं परस्त्रीजनवीक्षणेन ।
चेतः परापायविचिन्तनेन, कृतं भविष्यामि कथं विभोऽहम् ॥10॥
परदोष को कहकर सदा, मेरा वदन दूषित हुआ,
लखकर पराई नारियों को, हा नयन दूषित हुआ
मन भी मलिन है सोचकर, पर की बुराई हे प्रभो !
किस भाँति होगी लोक में, मेरी भलाई हे प्रभो!॥१०॥
विडम्बितं यत्स्मरघस्मरार्त्ति-दशावशात्स्वं विषयान्धलेन ।
प्रकाशितं तद्भवतो ह्रियैव, सर्वज्ञ ! सर्वं स्वयमेव वेत्सि ॥11॥
मैंने बढ़ाई निज विवशता, हो अवस्था के वशी,
भक्षक रतीश्वर से हुई, उत्पन्न जो दु:ख-राक्षसी
हा! आपके सम्मुख उसे, अति लाज से प्रकटित किया,
सर्वज्ञ! हो सब जानते, स्वयमेव संसृति की क्रिया ॥११॥
ध्वस्तोऽन्यमन्त्रैः परमेष्टिमन्त्रः, कुशास्त्रवाक्यैर्निहताऽऽगमोक्तिः ।
कर्तुं वृथा कर्म कुदेवसङ्गा,-दवाञ्छि ही नाथ मतिभ्रमो मे ॥12॥
अन्यान्य मंत्रों से परम, परमेष्ठि-मंत्र हटा दिया,
सच्छास्त्र-वाक्यों को कुशास्त्रों, से दबा मैं ने दिया
विधि-उदय को करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया,
हे नाथ! यों भ्रमवश अहित, मैंने नहीं क्या-क्या किया ॥१२॥
विमुच्य दृग्लक्षगतं भवन्तं, ध्याता मया मूढधिया हृदन्तः ।
कटाक्ष-वक्षोज-गभीरनाभी,-कटीतटीयाः सुदृशां विलासाः ॥13॥
हा! तज दिया मैंने प्रभो ! प्रत्यक्ष पाकर आपको,
अज्ञानवश मैंने किया, फिर देखिये किस पाप को
वामाक्षियों के राग में, रत हो सदा मरता रहा,
उनके विलासों के हृदय में, ध्यान को धरता रहा ॥१३॥
लोलेक्षणावक्त्रनिरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः ।
न शुद्धसिद्धान्तपयोधिमध्ये, धौतोऽप्यगात्तारक ! कारणं किम् ? ॥14॥
लखकर चपल-दृग-युवतियों, के मुख मनोहर रसमई,
जो मन-पटल पर राग भावों, की मलिनता बस गई
वह शास्त्र-निधि के शुद्ध जल से, भी न क्यों धोई गई,
बतलाइए यह आप ही, मम बुद्धि तो खोई गई ॥१४॥
अनंग न चङ्गं न गणो गुणानां, न निर्मलः कोपि कलाविलासः ।
स्फुरत्प्रधानप्रभुता च कापि, तथाप्यहङ्कारकदर्थितोऽहम् ॥15॥
मुझमें न अपने अंग के, सौन्दर्य का आभास है,
मुझमें न गुणगण हैं विमल, न कला-कलाप-विलास है
प्रभुता न मुझ में स्वप्न को, भी चमकती है देखिये,
तो भी भरा हूँ गर्व से, मैं मूढ़ हो किसके लिए ॥१५॥
आयुर्गलत्याशु न पापबुद्धि,-र्गतं वयो नो विषयाभिलाषः ।
यत्नश्च भैषज्यविधो न धर्मे, स्वामिन् ! महामोहविडम्बना मे ॥16॥
हा! नित्य घटती आयु है, पर पाप-मति घटती नहीं,
आई बुढ़ौती पर विषय से, कामना हटती नहीं
मैं यत्न करता हूँ दवा में, धर्म मैं करता नहीं,
दुर्मोह-महिमा से ग्रसित हूँ, नाथ! बच सकता नहीं ॥१६॥
नात्मा न पुण्यं न भवो न पापं, मया विटानां कटुगीरपीयम् ।
अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के, पुरिःस्फुटे सत्यपि देव ! धिग्माम् ॥17॥
अघ-पुण्य को, भव-आत्म को, मैंने कभी माना नहीं,
हा! आप आगे हैं खड़े, दिननाथ से यद्यपि यहीं
तो भी खलों के वाक्यों को, मैंने सुना कानों वृथा,
धिक्कार मुझको है गया, मम जन्म ही मानों वृथा ॥१७॥
न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः ।
लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयाऽरण्यविलापतुल्यम् ॥18॥
सत्पात्र-पूजन देव-पूजन कुछ नहीं मैंने किया,
मुनिधर्म-श्रावकधर्म का भी, नहिं सविधि पालन किया
नर-जन्म पाकर भी वृथा ही, मैं उसे खोता रहा,
मानो अकेला घोर वन में, व्यर्थ ही रोता रहा ॥१८॥
चक्रे मयाऽसत्स्वपि कामधेनु - कल्पद्रुचिन्तामणिषु स्पृहार्त्तिः ।
न जैनधर्मे स्फुटशर्मदेऽपि, जिनेश ! मे पश्य विमूढभावम् ॥19॥
प्रत्यक्ष सुखकर जिन-धरम, में प्रीति मेरी थी नहीं,
जिननाथ! मेरी देखिये, है मूढ़ता भारी यही
हा! कामधुक कल्पद्रुमादिक, के यहाँ रहते हुए,
हमने गँवाया जन्म को, धिक्कार दु:ख सहते हुए ॥१९॥
सद्भोगलीला न च रोगकीला, धनागमो नो निधनागमश्च ।
दारा न कारा नरकस्य चित्ते, व्यचिन्ति नित्यं मयकाऽधमेन ॥20॥
मैंने न रोका रोग-दु:ख, संभोग-सुख देखा किया,
मनमें न माना मृत्यु-भय, धन-लाभ ही लेखा किया
हा! मैं अधम युवती-जनों, का ध्यान नित करता रहा,
पर नरक-कारागार से, मन में न मैं डरता रहा ॥२०॥
स्थितं न साधोरर्ह्यदि साधुवृत्त्या, परोपकारान्न यशोऽर्जितं च ।
कृतं न तीर्थोद्धरणादि कृत्यं, मया मुधा हारितमेव जन्म ॥21॥
सद्वृत्ति से मन में न, मैंने साधुता ही साधिता,
उपकार करके कीर्ति भी, मैंने नहीं कुछ अर्जिता
शुभ तीर्थ के उद्धार आदिक, कार्य कर पाये नहीं,
नर-जन्म पारस-तुल्य निज मैंने गँवाये व्यर्थ ही ॥२१॥
वैराग्यरङ्गो न गुरूदितेषु, न दुर्जनानां वचनेषु शान्तिः ।
नाध्यात्मलेशो मम कोपि देव !, तार्यः कथङ्कारमयं भवाब्धिः ॥22॥
शास्त्रोक्त-विधि वैराग्य भी, करना मुझे आता नहीं,
खल-वाक्य भी गतक्रोध हो, सहना मुझे आता नहीं
अध्यात्म-विद्या है न मुझमें, है न कोई सत्कला,
फिर देव! कैसे यह भवोदधि, पार होवेगा भला? ॥२२॥
पूर्वे भवेऽकारि मया न पुण्य,- मागामिजन्मन्यपि नो करिष्ये ।
यदीदृशोऽहं मम तेन नष्टा, भूतोद्भवद्भाविभवत्रयीश ! ॥23॥
सत्कर्म पहले-जन्म में, मैंने किया कोई नहीं,
आशा नहीं जन्मान्य में, उसको करूँगा मैं कहीं
इस भाँति का यदि हूँ जिनेश्वर! क्यों न मुझको कष्ट हों
संसार में फिर जन्म तीनों, क्यों न मेरे नष्ट हों? ॥२३॥
किं वा मुधाऽहं बहुधा सुधाभुक् - पूज्य ! त्वदग्रे चरितं स्वकीयं ।
जल्पामि यस्मात् त्रिजगत्स्वरूप - निरूपकस्त्वं कियदेतदत्र ॥24॥
हे पूज्य! अपने चरित को, बहुभाँति गाऊँ क्या वृथा,
कुछ भी नहीं तुमसे छिपी, है पापमय मेरी कथा
क्योंकि त्रिजग के रूप हो, तुम ईश, हो सर्वज्ञ हो,
पथ के प्रदर्शक हो तुम्हीं, मम चित्त के मर्मज्ञ हो ॥२४॥
दीनोद्धारधुरन्धरस्त्वदपरो नास्ते मदन्यः कृपा-
पात्रं नात्र जने जिनेश्वर ! तथाप्येतां न याचे श्रियम् ।
किंत्वर्हन्निदमेव केवलमहो सद्बोधिरत्नं शिवं,
श्रीरत्नाकर ! मङ्गलैकनिलय ! श्रेयस्करं प्रार्थये ॥25॥
दीनोद्धारक धीर हे प्रभु! आप-सा नहीं अन्य है,
कृपा-पात्र भी नाथ! न, मुझ-सा कहीं अवर है
तो भी माँगूं नहीं धान्य धन कभी भूलकर,
अर्हन्! प्राप्त होवे केवल, बोधिरत्न ही मंगलकर ॥२५॥
(दोहा)
श्री रत्नाकर गुणगान यह, दुरित-दु:ख सबके हरे
बस एक यही है प्रार्थना, मंगलमय जग को करे ॥