वीर-हिमाचल तें निकसी, गुरु-गौतम के मुख-कुण्ड ढरी है ।मोह-महाचल भेद चली, जग की जड़ता-तप दूर करी है ॥१॥ज्ञान-पयोनिधि माँहि रली, बहुभंग-तरंगनि सौं उछरी है ।ता शुचि-शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजलि करि शीश धरी है ॥२॥या जग-मन्दिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छ्यौ अति भारी ।श्रीजिन की धुनि दीपशिखा-सम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ॥३॥तो किस भांति पदारथ-पाँति, कहाँ लहते? रहते अविचारी ।या विधि सन्त कहैं धनि हैं, धनि हैं, जिन-बैन बड़े उपकारी ॥४॥
अर्थ : जो भगवान महावीररूपी हिमालय पर्वत से निकली है, गौतम गणधर के मुखरूपी कुण्ड में ढली है, मोहरूपी विशाल पर्वतों का भेदन करती चल रही है, जगत् की अज्ञानरूपी गर्मी को दूर कर रही है, ज्ञानसमुद्र में मिल गई है और जिसमें भंगों रूपी बहुत तरंगें उछल रही हैं; उस जिनवाणीरूपी पवित्र गंगा नदी को मैं हाथ जोड़कर और शीश झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि अहो ! इस संसाररूपी भवन में अज्ञानरूपी अत्यधिक घना अन्धकार छाया हुआ है । उसमें यदि यह प्रकाश करने वाली जिनवाणीरूपी दीपशिखा नहीं होती तो हम वस्तु का स्वरूप किस प्रकार समझते, भेदज्ञान कैसे प्राप्त करते ? तथा इसके बिना तो हम अविचारी -- अज्ञानी ही रह जाते । अहो ! धन्य है !! धन्य है !! जिनवचन परम उपकारक है ।