रे जिय! काहे क्रोध करे ॥टेक॥देख के अविवेक प्रानी, क्यों न विवेक धरै ॥१॥ जिसे जैसी उदय आवै, सो क्रिया आचरै । सहज तू अपनो बिगारै,जाय दुर्गम परै ॥२॥होय संगति गुन सधनि को, सरब जग छच्चरै । तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै ॥३॥ वैद्य परविष हर सकत नहीं, आप भखि को मरै । बह कषाय निगोद-वासा, 'द्यानत' क्षमा धरै ॥४॥
अर्थ : अरे जिया, तू क्रोध क्यों करता है? कोई यदि क्रोध करता है तो तू उस अविवेकी को देखकर भी स्वयं विवेक क्यों धारण नहीं करता ?
अरे भाई ! जिस कर्म का उदय आता है, उसी के अनुरूप उसकी क्रिया हो जाती है। कर्म प्रवाह में बहता हुआ सहजता से अपनी भी हानि कर लेता है और दुर्गति में जाकर पड़ता है।
गुणों की संगति सबको सुलभ हो, प्राप्त हो, सारा जगत यह ही चाहता है और कहता भी है। इसलिए तु स्वयं भला बन और सबका भला कर। दूसरे के बुरे कार्यों को देखकर जलन मत कर।
यदि कोई वैद्य दूसरे के जहर का हरण नहीं कर सकता तो वह स्वयं उसका सेवन करके अपना प्राणान्त क्यों करेगा? अरे कषाय-बहुलता के कारण यह जीव निगोद में जाकर जन्म लेता है । द्यानतरायजी कहते हैं कि क्षमा आदि गुणों धारण करो और तिर जाओ ।