जो इच्छा का दमन न हो तो, चारित्र से शिव गमन नहीं रे ॥टेक॥अन्न त्याग से मुक्ति होय तो, भिक्षुक लंघन करत रही रे ।नीर तजै भव पीर कटै तो, मृग तृष्णा-वश जान दई रे ॥1॥बिन बोले ते मौनी हो तो, बगुला बैठो मौन गही रे ।नाम जपै निज नाथ मिलै तो, तोता निशदिन रटत वही रे ॥2॥वस्त्र त्याग अरु वन निवास तें, जो होवै सो साधु कही रे ।तो पशु वस्त्र कभी नहीं पहिनत, वन में आयुष बीत गयी रे ॥3॥काया कृष कर कृत नहीं होवै, जो इच्छा नहीं दमन भई रे ।'भोमराज' जो ताहि दमत है, सो पावै है मोक्ष मही रे ॥4॥
अर्थ : बिना इच्छाओं के अभाव के बाहर शरीर से कितनी भी क्रियाएँ (बाह्य चारित्र) कर ली जाएँ, वे मुक्ति का कारण नहीं हैं।
यदि भोजन का त्याग करने से मुक्ति होती हो, तो सभी भिक्षु लंघन (उपवास) करते हैं, उन सभी को मुक्ति क्यों नहीं होती? तथा यदि जल त्याग करने से मुक्ति होती है, तो रेगिस्तान में हिरण जल के लिए ही मृग-मरीचिका के कारण अपने प्राण तक त्याग कर देता है। फिर उसे भी मुक्ति होनी चाहिए?
नहीं बोलने (मौन रखने) से मौनी होते, तो बगुला भी मौनी कहलाया जाना चाहिए। और यदि भगवान का नाम जपने से निज नाथ अर्थात भगवान/सच्चा सुख मिलता, तो तोता तो दिनभर उसकी रटन लगा सकता है। फिर उसे भगवान क्यों नहीं मिलते?
वस्त्रों के त्याग और वन में रहने मात्र से किसी को साधु कह दिया जाए, तो पशु कभी वस्त्र नहीं पहनते और जीवन भर ही वन (जंगल) में रहते हैं, तब उन्हें भी साधु क्यों नहीं कहा जाना चाहिए?
अगर इच्छा का दमन अर्थात नाश नहीं हुआ हो तो, शरीर के कृष अर्थात सुखा लेने मात्र से कृत-कृत्य नहीं हुआ जा सकता । तथा, जो इच्छा का दमन कर देता है, वह ही मुक्ति भूमि को प्राप्त करता है ।