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आ-कुंदकुंद-पूजन
कवियत्री अरुणा जैन 'भारती'
मूलसंघ को दृढ़तापूर्वक, किया जिन्होंने रक्षित है ।
कुंदकुंद आचार्य गुरु वे, जिनशासन में वन्दित हैं ॥
काल-चतुर्थ के अंतिम-मंगल, महावीर-गौतम गणधर ।
पंचम में प्रथम महामंगल, श्री कुंदकुंद स्वामी गुरुवर ॥
उन महागुरु के चरणों में, अपना शीश झुकाता हूँ ।
आह्वानन करके त्रियोग से, निज-मन में पधराता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

भूलकर निजभाव को, भव-भव किया मैंने भ्रमण ।
है समर्पित जल चरण में, मिटे अब जामन-मरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

संतप्त हूँ भव-ताप से, तन-मन सहे दु:सह जलन ।
मिले शीतलता प्रभो! अब, दु:ख हों सारे शमन ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

ले अखंडित शुभ्र-तंदुल, पूजता हूँ तुम चरण ।
मिले मेरा पद मुझे अब, इसलिए आया शरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

मिले शील-स्वभाव मेरा, नष्ट हो शत्रु-मदन ।
मिटें मन की वासनायें, पुष्प हैं अर्पित चरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे, भी इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

यह भूख की ज्वाला प्रभो! बढ़ती रही हर एक क्षण ।
नैवेद्य अर्पित कर रहा, हो क्षुधा-व्याधि का हरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

मोह-ममता से सदा, मिथ्यात्व में होता रमण ।
मार्ग सम्यक् अब मिले, यह दीप है अर्पण चरण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अष्ट कर्म-प्रकृतियों में, ही उलझता है ये मन ।
ऐसा हो पुरुषार्थ अब, हो जाए कर्मादि-दहन ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

मोक्षफल पाने को हो, रत्नत्रय की अब लगन ।
आत्मा बलवान हो, फल से अत: करता यजन ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

अर्घ्य मनहारी बना, अष्टांग से करता नमन ।
पद-अनर्घ्य की प्राप्ति को अब, हो सदा स्वातम-रमण ॥
पाद-पद्मों में गुरु के, हों मेरे शत-शत-नमन ।
मुक्ति मिल जाए मुझे भी, इसलिए करता यतन ॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
जोगीरासा छन्द
साक्षात् सीमन्धर-वाणी, सुनी जिन्होंने क्षेत्र-विदेह ।
योगिराज सम्राट् स्वयं वे, ऋद्धिधारी गए सदेह ॥1॥

सरस्वती के वरदपुत्र वे, उनकी प्रतिभा अद्भुत थी ।
सीमंधर-दर्शन में उनकी, आत्मश​क्ति ही सक्षम थी ॥2॥

चौरासी पाहुड़ लिखकर के, जिन-श्रुत का भंडार भरा ।
ऐसे ज्ञानी-ध्यानी मुनि ने, इस जग का अज्ञान हरा ॥3॥

श्री कुंदकुंद आचार्य यदि, हमको सुज्ञान नहीं देते ।
कैसे होता ज्ञान निजातम, हम भी अज्ञानी रहते ॥4॥

बहुत बड़ा उपकार किया जो, परम्परा-श्रुत रही अचल ।
वर्ना घोर-तिमिर मोह में ही, रहते जग में जीव सकल ॥5॥

'समयसार' में परमातम, बनने का साधन-सार भरा ।
'पंचास्तिकाय' में श्री गुरुवर ने, द्रव्यों का निर्देश करा ॥6॥

'प्रवचनसार' रचा स्वामी ने, भेदज्ञान बतलाने को ।
'मूलाचार' लिखा मुनि-हित, आचार-मार्ग दर्शाने को ॥7॥

'नियमसार' अरु 'रयणसार' में, आत्मज्ञान के रत्न महान ।
सिंह-गर्जना से गुरुवर की, हुआ प्राणियों का कल्याण ॥8॥

हैं उपलब्ध अष्टपाहुड़ ही, लेकिन वे भी हैं अनमोल ।
ताड़पत्र पर हस्तलिखित हैं, कौन चुका सकता है मोल ॥9॥

भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि, क्रमश: उनके शिष्य हुए ।
शास्त्रदान और माँ की लोरी, से ही स्वाश्रित मुनि हुए ॥10॥

वीर समान ही पाँच नाम हैं, इन महिमाशाली गुरु के ।
कुंदकुंद वक्रग्रीव गृद्धपिच्छ, एलाचार्य पद्मनन्दि ये ॥11॥

ऐसे देव-स्वरूपी साधु, यदा कदा ही होते हैं ।
जिनके पथ पर चलकर, लाखों जीव मुक्त हो जाते हैं ॥12॥

उन महान गुरु के चरणों में, श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं ।
गुरु-आज्ञा से पूजा रचकर, 'अरुणा' मन में हर्षित है ॥13॥
ॐ ह्रीं श्री कुंदकुंदाचार्यस्वामिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(दोहा)
आचार्य कुंदकुंद गुरुवर का, जीवन सार महान् ।
जो भी यह पूजा पढ़ें उनका हो कल्याण ॥
॥ इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥