तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालय को वन्दन । उर्ध्व मध्य पाताल लोक के जिन भवनों को करूं नमन ॥ हैं अकृत्रिम आठ कोटि अरु छप्पन लाख परम पावन । संतानवे सहस्त्र चार सौ इक्यासी गृह मन भावन ॥ कृत्रिम अकृत्रिम जो असंख्य चैत्यालय हैं उनको वन्दन । विनय भाव से भक्ति पूर्वक नित्य करूँ मैं जिन पूजन ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
सम्यक् जल की निर्मल उज्ज्वलता से जन्म जरा हर लूँ । मूल धर्म का सम्यक् दर्शन हे प्रभु हृदयंगम कर लूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
सम्यक् चन्दन पावन की शीतलता से भव-भय हर लूँ । वस्तु स्वभाव धर्म है सम्यक् ज्ञान आत्मा में भर लूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
सम्यक्चारित की अखंडता से अक्षयपद आदर लूँ । साम्यभाव चारित्र धर्म पा वीतरागता को वर लूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
शील स्वभावी पुष्प प्राप्त कर कामशत्रु को क्षय करलूँ । अणुव्रत शिक्षाव्रत गुणव्रत धर पंच महाव्रत आचरलूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पा भव सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
संतोषामृत के चरु लेकर क्षुधा व्याधि को जय कर लूँ । सत्य शौच तप त्याग क्षमा से भाव शुभाशुभ सब हर लूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
ज्ञानदीप के चिर प्रकाश से मोह ममत्व तिमिर हर लूँ । रत्नत्रय का साधन लेकर यह संसार पार कर लूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
ध्यान-अग्नि में कर्म धूप धर अष्टकर्म अघ को हरलूँ । धर्म श्रेष्ठ मंगल को पा शिवमय सिद्धत्व प्राप्त करलूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन करलूँ । ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हरलूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
भेद-ज्ञान विज्ञान ज्ञान से केवलज्ञान प्राप्त करलूँ । परमभाव सम्पदा सहजशिव महामोक्षफल को वरलूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
द्वादश विधितप अर्ध संजोकर जिनवर पद अनर्घ वरलूँ । मिथ्या अविरति पंच प्रमाद कषाय योग बन्धन हरलूँ ॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वन्दन कर लूँ । ज्ञान-सूर्य की परम-ज्योति पा भव-सागर के दुख हर लूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) इस अनन्त आकाश बीच में, तीन लोक हैं पुरुषाकार । तीनों वातवलय से वेष्टित, सिंधु बीच ज्यों बिन्दु प्रसार ॥ उर्ध्व सात हैं, अधों सात हैं, मध्य एक राजु विस्तार । चौदह राजु उतंग लोक हैं, त्रस नाड़ी त्रस का आधार ॥
तीनलोक में भवन अकृत्रिम आठ कोटि अरुछप्पन लाख । संतानवे सहस्त्र चार सौ इक्यासी जिन आगम साख ॥ उर्ध्व लोक में कल्पवासियों के जिनगृह चौरासी लक्ष । संतानवे सहस्त्र तेईस जिनालय हैं शाश्वत प्रत्यक्ष ॥
अधोलोक में भवनवासि के लाख बहत्तर, करोड़ सात । मध्यलोक के चार शतक अठ्ठावन चैत्यालय विख्यात ॥ जम्बूधातकी पुष्करार्ध में पंचमेरु के जिनगृह ख्यात । जम्बूवृक्ष शाल्मलितरु अरू विजयारध के अति विख्यात ॥
वक्षारों गजदंतों ईष्वाकारों के पावन जिनगेह । सर्व कुलाचल मानुषोत्तर पर्वत के वन्दू धर नेह ॥ नन्दीश्वर कुण्डलवर द्वीप रुचकवर के जिन चैत्यालय । ज्योतिष व्यंतर स्वर्गलोक अरु भवनवासि के जिनआलय ॥
एक-एक में एक शतक अरु आठ-आठ जिन मूर्ति प्रधान । अष्ट प्रातिहार्यों वसु मंगल द्रव्यों से अति शोभावान ॥ कुल प्रतिमा नौ सौ पच्चीस करोड़ तिरेपन लाख महान । सत्ताइस सहस्त्र अरु नौ सौ अड़तालिस अकृत्रिम जान ॥
उन्नत धनुष पांच सौ पद्मासन है रत्नमयी प्रतिमा । वीतराग अर्हन्त मूर्ति की है पावन अचिन्त्य महिमा ॥ असंख्यात संख्यात जिन-भवन तीन-लोक में शोभित हैं । इंद्रादिक सुर नर विद्याधर मुनि वन्दन कर मोहित हैं ॥
देव रचित या मनुज रचित, हैं भव्यजनों द्वारा वंदित । कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय को पूजन कर मैं हूँ हर्षित ॥ ढाईद्वीप में भूत भविष्यत वर्तमान के तीर्थंकर । पंचवर्ण के मुझे शक्ति दें मैं निज पद पाऊँ जिनवर ॥
जिनगुण सम्पत्ति मुझे प्राप्त दो परम समाधिमरण हो नाथ । सकलकर्म क्षय हो प्रभु मेरे बोधिलाभ हो हे जिननाथ ॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेब्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा