हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा तन-सम्बन्धी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥पुन्य उदय सुख का बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा ।पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन जानन हारा ॥हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ॥१॥मैं तिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला ।थिति पूरी करि खिर खिर जांहीं,मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं ॥हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ॥२॥राग भावतैं सज्जन मानैं, दोष भावतैं दुर्जन जानैं ।राग दोष दोऊ मम नाहीं, 'द्यानत' मैं चेतनपदमाहीं ॥हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ॥३॥
अर्थ : हे प्राणी ! न तो हम किसी के हैं और न कोई हमारा है। जग में जो अपनेपन का व्यवहार प्रचलित है, वह नितान्त झूठा है, मिथ्या है।
यह सब परिवार इस शरीर से सम्बन्धित है; परन्तु हम जानते हैं कि यह तन भी हमसे न्यारा है, अलग है। पुण्योदय होता है तो सुख की वृद्धि होती है। पाप का उदय होता है तो अपार (जिसका कोई पार नहीं होता) दुःख उत्पन्न होता है। पाप और पुण्य ये दोनों ही क्रियाएँ संसार की हैं, मैं तो इन सबका दृष्टा मात्र हूँ, देखनेवाला हूँ।
मैं तीन लोक में, तीन काल में सदा अकेला हूँ। पर के संयोग के कारण यह (पारिवारिक) मेला-सा जुट गया है। जैसे-जैसे इसकी स्थिति पूरी होती जाती है. ये सब संयोग विघटते जाते हैं, खिर जाते हैं, खत्म होते जाते हैं इसलिए इन संयोगों के प्रति मेरे न कोई हर्ष है और न मेरे कोई शोक है, न विषाद है।
राग-भाव के कारण अपनापन होता है, जिसके कारण प्राणी अपना समझा व कहा जाता है, सज्जन व भला आदमी समझा व जाना जाता है। और वैरभाव के कारण वह दुष्ट गिना जाता है। परन्तु न तो यह राग-भाव मेरा है और न यह द्वेष-भाव ही मेरा है। धानतराय कहते हैं कि मेरा तो यह चेतनपद है, जो इन दोनों (राग-द्वेष) से भिन्न है - वह ही मेरा अपना है।