रोम रोम में नेमिकुंवर के, उपशम रस की धारा, राग द्वेष के बंधन तोडे, वेष दिगम्बर धारा॥ब्याह करन को आये, संग बराती लाये, पशुओं को बंधन में देखा, दया सिंधु लहराये।धिक धिक जग की स्वारथ वृत्ति, कहीं न सुक्ख लघारा॥राजुल अति अकुलाये, नौ भव की याद दिलाये, नेमि कहे जग में न किसी का, कोई कभी हो पाये।रागरूप अंगारों द्वारा, जलता है जग सारा॥नौ भव का सुमिरण कर नेमि, आतम तत्व विचारे, शाश्वत ध्रुव चैतन्य राज की, महिमा चित में धारे।लहराता वैराग्य सिंधु अब, भायें भावना बारा॥राजुल के प्रति राग तजा है, मुक्ति वधू को ब्याहें, नग्न दिगम्बर दीक्षा धर कर, आतम ध्यान लगायें।भव बंधन का नाश करेंगे, पावें सुख अपारा॥