आचार्य श्री धरसेन जो न ग्रन्थ लिखाते, हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥टेक॥
अपने अलौकिक ज्ञान से, सब भेद जानकर, बुलवाये दो मुनिराज की महिमा नगर खबर, गर वे नहीं मुनिराज, युगल ऐसे बुलाते, हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥१॥
आने से पहले स्वप्न में ही योग्य जानकर, दो मंत्र सिद्धि तारा फिर परखा प्रधान कर, उत्तीर्ण होकर योग्यता, गर वे न दिखाते । हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥२॥
पश्चात् पढ़ाया उन्हें, निज शिक्ष्य मानकर, उन्हें भी ग्रन्थ लिखा, गुरु उपकार मानकर, करुणा निधान मुनि, नहीं गर ग्रन्थ रचाते । हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥३॥
श्री पुष्पदंत सूरि, प्रथम खण्ड बनाया, अभिप्राय जानने को भूतबलि पै पढ़ाया, यदि वे नहीं उस ग्रन्थ का प्रारम्भ कराते । हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥४॥
उनसे प्रसन्न होय, शेष ग्रन्थ रचाया, श्री 'ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी' को पूर्ण कराया, गर वे नहीं इस ग्रन्थ को सम्पूर्ण कराते । हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥५॥
ग्रन्थाधिराज की हुयी, थी आज ही पूजा, इस काल में इससे बड़ा उपकार न दूजा, करुणा निधान गुरु अगर ऐसा न कराते । हम जैसे बुद्धिहीन, तत्त्व कैसे लहाते ॥६॥