मेरा मन का प्यारा जो मिले, मेरा सहज सनेही जो मिलै ।अवधि अजोध्या आतमराम, सीता सुमति करै परणाम ॥टेक॥उपज्यो कंत मिलन को चाव, समता सखी सों कहै इह भाव ।मैं विरहिन पिय के आधीन, यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ॥१॥बाहिर देखूँ तो पिय दूर, घट देखे घट में भरपूर ।घटमहिं गुप्त रहै निरधार, वचन अगोचर मन के पार ॥२॥अलख अमूरति वर्णन कोय, कबधों पिय को दर्शन होय ।सुगम सुपंथ निकट है ठौर, अंतर आड विरह की दौर ॥३॥जउ देखों पिय की उनहार, तन मन सबस डारों वार ।होहुं मगन मैं दरशन पाय, ज्यों दरिया में बूँद समाय ॥४॥पिय को मिलों अपनपो खोय, ओला गल पाणी ज्यों होय ।मैं जग ढूँढ फिरी सब ठोर, पिय के पटतर रूप न ओर ॥५॥पिय जगनायक पिय जगसार, पिय की महिमा अगम अपार ।पिय सुमिरत सब दुख मिटजाहिं, भोर निरख ज्यों चोर पलाहिं ॥६॥भयभंजन पिय को गुनवाद, गदगंजन ज्यों के हरिनाद ।भागई भरम करत पियध्यान, फटइ तिमिर ज्यों ऊगत भान ॥७॥दोष दुरह देखत पिय ओर, नाग डरइ ज्यों बोलत मोर ।बसों सदा मैं पिय के गांउ, पिय तज और कहाँ मैं जाउँ ॥८॥जो पिय-जाति जाति मम सोइ, जातहिं जात मिलै सब कोइ ।पिय मोरे घट मैं पियमाहिं, जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहिं ॥९॥पिय मो करता मैं करतूति, पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविभूति ।पिय सुखसागर मैं सुखसींव, पिय शिवमन्दिर मैं शिवनीव ॥१०॥पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम ।पिय शंकर मैं देवि भवानि, पिय जिनवर मैं केवलबानि ॥११॥पिय भोगी मैं भुक्तिविशेष, पिय जोगी मैं मुद्रा भेष । पिय मो रसिया मैं रसरीति, पिय व्योहारिया मैं परतीति ॥१२॥जहाँ पिय साधक तहाँ मैं सिद्ध, जहाँ पिय ठाकुर तहाँ मैं रिद्ध ।जहाँ पिय राजा तहाँ मैं नीति, जहँ पिय जोद्धा तहाँ मैं जीति ॥१३॥पिय गुणग्राहक मैं गुणपति, पिय बहुनायक मैं बहुभाँति ।जहँ पिय तहँ मैं पिय के संग, ज्यों शशि हरि में ज्योति अभंग ॥१४॥पिय सुमिरन पिय को गुणगान, यह परमारथ पंथ निदान ।कहइ व्यवहार 'बनारसि' नाव चेतन सुमति सटी इकठांव ॥१५॥