हे हितवांछक प्रानी रे ! कर यह रीति सयानी ।श्रीजिन चरन चितार धार गुन, परम विराग विज्ञानी ॥हरन भयामय स्व-पर दयामय, सरधौ वृष सुखदानी ।दुविध उपाधि बाध शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणथानी ॥मोह-तिमिर-हर मिहिर भजो श्रुत, स्यात्पद जास निशानी ।सप्त तत्त्व नव अर्थ विचारहु, जो बरनै जिनवानी ॥निज पर भिन्न पिछान मान पुनि, होहु आप सरधानी ।जो इनको विशेष जाने सो, ज्ञायकता मुनि मानी ॥फिर व्रत-समिति-गुपति सजि अरु तजि, प्रवृति शुभास्रव दानी ।शुद्ध स्वरूपाचरन लीन ह्वै, 'दौल' वरो शिवरानी ॥
अर्थ : हे अपना हित चाहनेवाले प्राणियो ! निम्नलिखित अच्छे कार्य करो -
परम वीतरागी एवं सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्रदेव के चरणों का स्मरण करो, उनके गुणों को धारण करो, भयरूपी रोग को दूर करनेवाले एवं सुखदायक स्वपर-दयामयी धर्म का श्रद्धान करो, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित मोक्षमार्गी और महागुणी सद्गुरुओं की भक्ति करो, मोहरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए जो सूर्य के समान है और 'स्यात्' पद ही जिसका चिह्न है - ऐसे शास्त्र की उपासना करो, जिनवाणी में वर्णित सप्ततत्त्वों एवं नवपदार्थों का विचार करो, स्व और पर को भिन्न-भिन्न पहचानो और फिर अपने आप का श्रद्धान करो। तथा यदि सप्ततत्त्वों एवं नवपदार्थों के विशेष भी जाने जाएँ तो वह भी ज्ञान करने के लिए ठीक है-ऐसा मुनियों ने कहा है।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि हे प्राणी ! इसके बाद तुम व्रत-समिति-गुप्ति से शोभायमान होओ; और फिर समस्त शुभास्रवकारी प्रवृत्ति का भी त्याग करके शुद्ध स्वरूपाचरण मे लीन होकर मुक्तिरानी का वरण करो।