क्योंकर महल बनावै, पियारे ।पाँच भूमि का महल बनाया, चित्रित रंग रंगावे पियारे ॥टेक॥गोखें बैठो, नाटक निरखे, तरुणी-रस ललचावै ।एक दिन जंगल होगा डेरा, नहिं तुझ संग कछु जावै, पियारे ॥क्योंकर महल बनावै, पियारे ॥१॥तीर्थंकर गणधर बल चक्री, जंगल वास रहावै ।तेहना पण मन्दिर नहिं दीसे, थारी कवन चलावै ॥क्योंकर महल बनावै, पियारे ॥२॥हरिहर नारद परमुख चल गये, तू क्यों काल बितावै।तिनतें नवनिधि चारित आदर, 'ज्ञानानन्द' रमावै, पियारे ॥क्योंकर महल बनावै, पियारे ॥३॥
अर्थ : प्रिय मानव! तुम यह महल किसलिए बनाते हो?
प्रियवर ! तुम तीव्र रागभाव से प्रेरित होकर पाँच खण्ड का महल बनाते हो और उसमें चित्र-विचित्र रंगों की रंगाई कराते हो। प्रिय मानव! तुम यह महल किसलिए बनाते हो?
प्रियवर ! तुम अपने नव-निर्मापति भवन की खिड़की में बैठकर नाटक देखते हो और तरुण पत्नी के साथ विषयोपभोग में आसक्त रहते हो। परन्तु तुम्हें पता नहीं है कि एक दिन तुम्हें यह सब छोड़कर जंगल में डेरा डालना होगा। तुम्हारी आयुष्य की समाप्ति पर सब चीजें यहीं रह जाएँगी और लोग तुम्हें जंगल ले जाकर जला आएँगे। तुम्हारे साथ अणुमात्र भी चीज नहीं जाएगी। प्रिय मानव! तुम यह महल किसलिए बनाते हो?
प्रिय बन्धु ! तीर्थंकर, गणधर, बलदेव और चक्रवर्ती भी महल को ममत्वजनक मानते हुए छोड़ गये और जंगल में जाकर आत्म-साधना में लीन रहे। प्रियवर ! इन महापुरुषों में से किसी एक का भी महल आज शेष नहीं है। फिर तुम क्यों अपने महल को चिरस्थायी बनाने की दृष्टि से इस प्रकार मोहाकुल हो रहे हो? तुम्हारी हस्ति ही क्या है?
प्रियवर ! हरि, हर और नारद भी जहाँ जन्मे और अपने-अपने समय पर यहाँ से चले गये। ऐसे महापुरुष भी संसार में शाश्वत होकर नहीं रह सके। फिर तुम क्यों अपना समय व्यर्थ व्यतीत कर रहे हो? प्रियवर, तुम नवनिधिमय आत्मचारित्र को प्राप्त करो और ज्ञानान्दमय आत्मस्वभाव में रमण करो। प्रिय मानव! तुम यह महल किसलिए बनाते हो?